रत्नावली 5

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पाँच सोच के जागरण से मनुष्य में सहनशक्ति बढ़ जाती है। हर दर्द का प्रारम्भ असहनीय होता है। धीरे-धीरे वह दर्द सहनीय बनता जाता है। दर्द से सहनशक्ति तो बढ़़ती ही है इसके साथ आदमी में अनन्त आत्मविश्वास भी बढ़़़ता जाता है। जीवन के प्रति आस्थायें गहरी हो जाती हैं। यों सोचकर पण्डित दीनबन्धु पाठक कुछ दिनों से निश्चिंत रहने लगे थे। शनैःशनैः चिन्तन ने असहनीय पीड़ा को सहनीय बना दिया था। रत्ना इन परिस्थतियों में मुस्कराना सीख रही थी। वह जान गयी थी, अब उसकी मुस्कराहट ही समाज के सामने शान से जीने का काम