इंसानियत - एक धर्म - 27

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सुबह के लगभग आठ बज चुके थे जब बस प्रतापगढ़ के सरकारी बस अड्डे में घुसी थी । मुनीर बस अड्डे से बाहर की तरफ निकला । सिर पर गमछा बांधे वह एक देहाती जैसा ही लग रहा था । बस के खलासी व यात्रियों में से भी उसे कोई पहचानने वाला नहीं मिला था इस बात की उसे बेहद खुशी हो रही थी । अपनी योजना के मुताबिक अब उसे रात के हादसे के बारे में सही वस्तुस्थिति का पता लगाना था । बस अड्डे के बाहर एक पुस्तक विक्रेता की दुकानपर ताजे अखबार भी बेचने के लिए रखे