आँख की किरकिरी - 32

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(32) विनोदिनी की इस झिड़की से महेंद्र ने अपने में अपनी श्रेष्ठता के अनुभव की कोशिश की। उसके मन ने कहा - मैं विजयी होऊँगा - इसके बंधन तोड़ कर चला जाऊँगा। भोजन करके महेंद्र रुपया निकालने बैंक गया। रुपया निकाला और आशा तथा माँ के लिए कुछ नई चीजें खरीदने के खयाल से वह बाजार की दुकानों में घूमने लगा।  विनोदिनी के दरवाजे पर एक बार फिर धक्का पड़ा। पहले तो आजिजी से उसने कोई जवाब ही न दिया; लेकिन जब बार-बार धक्का पड़ने लगा तो आग-बबूला हो कर दरवाजा खोलते हुए उसने कहा - नाहक क्यों बार-बार मुझे