आड़ा वक्त- राजनारायण बोहरे

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आम इनसान की भांति हर लेखक..कवि भी हर वक्त किसी ना किसी सोच..विचार अथवा उधेड़बुन में खोया रहता है। बस फ़र्क इतना है कि जहाँ आम व्यक्ति इस सोच विचार से उबर कर फिर से किसी नयी उधेड़बुन में खुद को व्यस्त कर लेता है..वहीं लेखक या कवि अपने मतलब के विचार या सोच को तुरंत कागज़ अथवा कम्प्यूटर या इसी तरह किसी अन्य सहज..सुलभ..सुविधाजनक साधन पर उतार लेता है कि विचार अथवा सोच का अस्तित्व तो महज़ क्षणभंगुर होता है। इधर ध्यान हटा और उधर वह तथाकथित विचार..सोच या आईडिया तुरंत ज़हन से छूमंतर हो ग़ायब। अपनी स्मरणशक्ति को