झिलमिल सपने की धुंधली चादर

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झिलमिल सपने की धुंधली चादर बस जैसे ही स्टाप पर रुकी। चढ़ने उतरने वालो की भीड़ का रेला सा दिखा। चढ़ने वालो के काफिले मे अस्त व्यस्त परेशान सा एक बैग सम्हालते मैं भी थी। खैर, सीट मिल गई थी। किंतु उस पर पहले से ही एक भाई साहब बैठे हुए थे। पास जा कर मैंने शिष्टाचार से पूछा - बड़े भाई थोड़ा सीधे हो जाइए, मैं भी बैठ जाऊँ। हल्की सी मुस्कान के साथ वो अपनी जगह पर व्यवस्थित हुए। मैंने भी तसरीफ़ टीका ली। चेहरे से बड़े शांत, सौम्य और अपने मोबाईल मे लगभग उलझे से दिखे वे।