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झिलमिल सपने की धुंधली चादर

झिलमिल सपने की धुंधली चादर


बस जैसे ही स्टाप पर रुकी। चढ़ने उतरने वालो की भीड़ का रेला सा दिखा। चढ़ने वालो के काफिले मे अस्त व्यस्त परेशान सा एक बैग सम्हालते मैं भी थी।
खैर, सीट मिल गई थी। किंतु उस पर पहले से ही एक भाई साहब बैठे हुए थे।

पास जा कर मैंने शिष्टाचार से पूछा - बड़े भाई थोड़ा सीधे हो जाइए, मैं भी बैठ जाऊँ।
हल्की सी मुस्कान के साथ वो अपनी जगह पर व्यवस्थित हुए।
मैंने भी तसरीफ़ टीका ली।
चेहरे से बड़े शांत, सौम्य और अपने मोबाईल मे लगभग उलझे से दिखे वे।

एक तो परिचय नहीं, ऊपर से यात्रा।
घर से निकलते समय अम्मा ने कहा था - ध्यान से जाना बेटी, सफर मे अपरिचित से ना कुछ खाना, ना ज्यादा मतलब रखना, जुग ज़माना ठीक नहीं है, पहुंचते ही फोन करना।

बातेँ खत्म हुई होगी तब जा कर अम्मा ने अगली साँस को खींचा होगा, ऐसा मेरा मानना है।
मैं भी अपनी सीट पर WhatsApp पर स्टेटस Facebook पर अपनी खूबसूरत (जैसा मैं खुद को समझती हूँ) फोटो पर आई लाइक देख कर प्रफुल्लित हो रही थी।

महिला हित पर अक्सर मैं पुरुषों द्वारा महिलाओं पर अत्याचारों के विषय पर आए दिन लिखती रहती थी।
ये मुए मर्द हम औरतों पर जुल्म ही करते है। और औरते बेचारी कोल्हू के बैल की तरह जीवन भर नधी (बंधी) रहती है। कोई आजादी नहीं, कोई जिंदगी नहीं, बस पुरुषों की गुलामी। ये अहंकारी पुरुष सब एक से होते है, औरते इन्हें पैर की चप्पल ही समझते है।

मर्द ये, मर्द वो, मर्द फलानां, मर्द ढिमका यही विचार रहते है।
ल़डकियों को तो अपना घर छोड़ पराये घर जाना पड़ता है, मर्दों का क्या। कमाते ये है, तो धौंस दिखाने है। अपने मतलब से पास आते है वर्ना प्यार से बात करना तो आता ही नहीं।

मैं (रिद्धि) भी बैठी अपनी दुनिया और दुनियादारी मे मशगूल हो गई।
इसी आभासी दुनिया मे मस्त युवा पीढ़ी की तरह शायद रिद्धि की भी जिंदगी ऐसी ही मस्त मौला थी।

ये सोशल मीडिया और इनकी आभासी दुनिया, वास्तविक रिश्तों की कदर ना करने वाले लोग भी सुबह स्टेटस डालते है, माँ बाप की सेवा करने से अधिक पुण्य पूजा करने से भी नहीं मिलता। जीते जी पिता जी एक ग्लास पानी को तरस गए, माँ जी बहुओं की गालियाँ खाते खाते परमधाम को निकल गई और परमात्मा मे विलीन हो गई।

लेकिन अब उनके बेटे और बहुएं " miss you मम्मी पापा" आज ही के दिन (फलां साल मे) अम्मा /बाबू जी हमे अनाथ छोड़ कर चले गए। ईश्वर उनकी आत्मा को अपने श्री चरणों में स्थान दें। और भी कई संस्मरण साझा करने वालीं पीढ़ी है ये।
सगे भाई से बात हुए वर्षो बीत जाते है, लेकिन fb पर सब सहोदर ही दिखते है।

अचानक बस के टायरों के रुकने की आवाज आई। साथ बैठे भाई साहब का पड़ाव आ गया था शायद।
वो अपना आशियाना समेटते हुए बस से उतर गए।
बस अगले गंतव्य को बढ़ चली।

चूकिं मैं आप अपनी सीट पर अकेली ही थी तो खिड़की की ओर बैठ गई, और मोबाइल मे म्युजिक ऑन कर इयर फोन को कानो मे ठूंस कर संगीत और मौसम का आनंद लेने मे मशगूल हो गई।
बस बढ़ती जा रही थी। पीछे छोड़ती जा रही थी गुज़रते गांवों, पेड़ों, लोगों को।

मेरा हाथ अचानक सीट पर पड़े मुड़े कागज पर पड़ी।
लगा वो सौम्य दिखने वाले महाशय छिल्लर ही है, लड़की देखी नहीं की लव लेटर भी छोड़ गए। ये सभी होते ही नियतखोर है।

मैंने उसे उठाया और खिड़की से बाहर फेंकने का मन बना चुकी थी।
मन ने कहा - फेंकना तो है ही, जरा साहब के इश्क के चाशनी मे लिपटे शब्दों को पढ़ ले।
फिर उसने इधर उधर देखा। पाया कि कोई मुझे गौर से नहीं देख रहा।
मैंने कागज की तहों को खोला, अब पत्र का सार आँखों के सामने था, मैं पढ़ने लगी -

" जिंदगी यार तुम भी कितनी कमाल हो, जो सोचा वो मिला नहीं, जो मिला सोचा नहीं। जीवन के कुछ झिलमिल सपने देखे थे... जिंदगी ऐसी होगी, घर ऐसा होगा और ना जाने क्या क्या।

मुझे तनिक आभास भी नहीं रहा कि झिलमिल सपने जेहन मे अच्छे लगते है। यथार्थ मे तो इनमें धुंधली चादर पड़ी है। जहां बस गर्द गुबार, दुख, क्षोभ, क्रोध सब है, बस इन सब के बीच नहीं है तो सुकून।

मैं ऊब चुका हूँ अपनी जिंदगी से, थक गया हूँ मैं, तुम मे और तुम्हारी भाभी मे कोई फर्क़ नहीं है।

और शायद मेरी और तुम्हारी माँ ही गलत है। सिर्फ तुम्हारी और उसकी ही शादी हुई है दुनिया मे, बाकी सब दिखावा है, शादी नहीं उनको तो प्रताड़ित करके रिश्ते थोपे गए होंगे.... शायद ।

एक वहां जीवन को खुशहाल बना रही है और इधर तुम।
नहीं तुम्हारा दोष नहीं है। हो भी कैसे सकता है, एक बार ये गोल गोल घूमती दुनिया से सभी जीव दोषी हो सकते है किन्तु तुम.... असंभव है। ब्रह्मा जी ने तुम्हें कई यज्ञ और तपस्या करने के उपरांत धरती पर भेजा था। पूर्णतः निर्दोष।

कई बार सुन चुका तुम्हारे मुँह से की कोई मेरी इज़्ज़त नहीं करता, यार अपने घर मे जिनकी इज़्ज़त अपने परिवार के लोगों के सामने गिरने लगे तो वो परिवार नहीं पड़ोसी और गांव वाला होता है।

माना कि सब दोषी है पर तुम भी तो एक बेटी और बहू नहीं बन सकीं, खुद मे परिवर्तन करना नहीं है लेकिन बाकी सब बदले मिजाज मे चाहिए।

खुद परिवार के लोगों से जुड़ना नहीं लेकिन अपेक्षा यह कि सब तुमसे जुड़ जाए।
क्या ऐसे भी होता है कहीं? शायद नहीं ?

बेटा बेटी बहू माँ बाप बहन का मान अपने घर मे अपनों के बीच कभी कम नहीं होती। शर्त ये है कि रिश्ते निभाने और व्यावहार करना खुद को आना चाहिए।
जब जब समझाना चाहा, तुम झगड़ने लगती, अब मैंने मौन रहने की सोच ली है।
अपने ही घर मे तुम खुश नहीं हो, खुद से भी और ना ही घर वालो से, अब ये दुकान और बाजार मे थोड़े मिलती है।

बस ये जिंदगी कट जाए। तुम खुश रहो, हमारा क्या हम तो पैदा ही आंसुओ के लिए है। दो तुमने दे दिए तो क्या उखड़ गया जिंदगी का। इतने सालो से कह के ही कौन सा झंडा गाड़ लिया मैंने, सालों से तुम्हारे झगड़ों से अब सीने मे दर्द होने लगा है, खुश होना तो जैसे भूल सा गया हूँ मैं, ये दर्द उच्च रक्तचाप के कारण है, या हृदयाघात का आमंत्रण है या फिर कुछ और, मालूम नहीं मुझे।

मौत का क्या वह तो सत्य है आनी है, अपने समय पर आएगी और ये गठरी (देह) छोड़ मुझे लेकर चली जाएगी।
पर तुम ना समझी हो ना समझ पाओगी।

बेटियाँ घर नहीं छोड़ती, पराये तो बेटे होते है, परदेश और परदेश के किराये के कमरे यही तो मिलता है उन्हें, और तुम्हें माँ बाप के बदले माँ बाप (हालांकि तुम कदर ना करो ये और बात है), बहन के बदले बहन सरीखी ननदें, भाई के भरोसे की जगह पति मिलता है। पर कहा जाता है बेटियाँ पराया धन है। ऐसा क्यों? नहीं समझ पाता, क्या रिश्ते निभाने की जिम्मेदारी मेरी है... तुम्हारी कुछ नहीं........?"

पत्र समाप्त हो गया था, पर मेरे मुँह मे शब्द नहीं थे बोल तो दूर की बात है।
मेरे विचारो को झटका लगा था, उस सौम्य व्यक्ती का चेहरा, मुस्कान, मौन सब आखों मे नाचने लगा.... दूसरी ओर पत्र के शब्द, उस व्यक्ती का दर्द मुझे झकझोर रहा था। उस सहज मुस्कान के पीछे ये दर्द कैसे छुपा लेता होगा वो।
मेरा गंतव्य भी आ चुका था, बस रुकी। उतरने वाले उतरे।
मैं भी नीचे उतरी, पत्र अब भी मुट्ठी मे था, कदम बढ़ रहे थे पर विचार मष्तिक की मुट्ठी मे नहीं समा रहे थे।
ना बोल पा रही थी मैं, ना ही कुछ लिखने का साहस था मुझमे।

(समाप्त)
लेखक - संदीप सिंह (ईशू)

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