हिटलर की प्रेमकथा

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बचपन के दिन थे- चिंता से मुक्त और कौतूहल से भरे पाँवों के नीचे आसमान बिछ जाता। पंख उग आए..., पंखों को फैलाए हम नाना के आसमान में जाने को बेताब..., हम यानि मैं, माँ और छोटी, वैसे हम तीन जोड़ी पंखों को लेकर ही अपने जहाँ से उड़ते लेकिन माँ के पंख छोटे होकर सिकुड़ने लगते। आसमान धरती पर गिरता और पलक झपकते ही बिला जाता, धरती पर पथरीली चट्टानें उग आती। माँ कठपुतली में तब्दील हो जाती।

Full Novel

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हिटलर की प्रेमकथा - 1

बचपन के दिन थे- चिंता से मुक्त और कौतूहल से भरे पाँवों के नीचे आसमान बिछ जाता। पंख उग पंखों को फैलाए हम नाना के आसमान में जाने को बेताब..., हम यानि मैं, माँ और छोटी, वैसे हम तीन जोड़ी पंखों को लेकर ही अपने जहाँ से उड़ते लेकिन माँ के पंख छोटे होकर सिकुड़ने लगते। आसमान धरती पर गिरता और पलक झपकते ही बिला जाता, धरती पर पथरीली चट्टानें उग आती। माँ कठपुतली में तब्दील हो जाती। ...Read More

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हिटलर की प्रेमकथा - 2

भौं -- भौं -- भौं -- अभी एक सीढ़ी चढ़नी बाकी रही। मेरी फ्राॅक का कोना झपटने को आतुर बालांे वाला वह चीनी कुत्ता जिसकी आँखें कह रही थीं ‘‘नीचे उतर लड़की वरना चबा डालूँगा हड्डियाँ!’’ अब मैं जोर से चिल्लाई! माँ कुठार के अंदर घुसी थी बमुश्किल मृत्यु से खींच लाई हमें, ‘‘अभी पहचाना नहीं न उसने, दोस्ती करोगी तो वह भी खेलेगा तम्हारे साथ।’’ ...Read More

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हिटलर की प्रेमकथा - 3

गौरी, राधा, सीना परी और माँ का गला रूँध गया था... असूज (अश्विन) का महीना काल बनकर उतरा... खा अपनी नानी... हाँ... तू खा गई’’, मेरी माँ ने मुझे कोसा था। मैं सिसकते हुए बोली, ‘‘नाना, मेरी नानी मर क्यांे गई?’’ नाना चुप्प! काठ मार गया हो जैसे। मेरे कंठ से अनायास शब्द उमगने लगे ‘‘नाना, मेरी नानी वापस ला दो।’’ ...Read More