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पहचान

पहचान

राजेश झरपुरे

जब सुरेश मास्साब बस में चढ़े तो ड्राइविंग सीट पर मरियल सा आदमी बैठा दिखा। हालाँकि रोज़ कोई और उस सीट पर बैठा होता। वे उसे अच्छी तरह जानते थे। उसका नाम भूरा है। वह बस का नियमित ड्राइवर है। आज नहीं आया होगा। सोचकर उन्होंने उधर से निगाह हटा ली अन्यथा नमस्ते करने की बनती थी, जैसा सोचकर ही उनकी दृष्टि वहाँ गई थी। कन्डक्टर बस के दरवाज़े पर खड़ा सवारी की प्रतीक्षा कर रहा था। वह थोड़ा खुश हुआ पर चन्द निमेष में पुनः परेशान दिखने लगा। उसकी बेचैनी चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी।

बस में प्रवेश कर उसने देखा... दो-तीन सीट के अतिरिक्त अन्य सीटों पर उदासी पसरी हुई हैं। जबकि यही वह बस और टाइमिंग हैं जिसमें रोज़ धक्का-मुक्की होती हैं। सीट सपड़ाने की जैसे अंधी प्रतिस्पर्धा। केबिन में ही सट-सटकर सोलह-सत्रह सवारी बैठी रहती हैं। उन्हें पास से देखो या दूर से... सब एक दूसरे से जुड़े लगते। उनका जुड़ाव बेहद सघन होता। वे पहले या बाद में एक अलग और पृथक इकाई थे या बस से उतरते ही हो जायेंगे जैसी कल्पना कर सकना भी मुश्किल होता।

बस में जो सीट पर बैठे होते, वे बस स्टाप से, उसके छूटने के बहुत पहले आकर सीट कब्जे में कर लेते। वे बाजू वाली सीट भी अपने बैग से घेरकर रखते। अन्य कोई वहाँ बैठना चाहे तो कहते ’’...कोई आ रहा हैं।‘‘ यह कोई उनका मित्र होता या महिला सवारी, जिसे सीट देकर वह अपने अच्छे और सच्चे सहयात्री होने की भूमिका निभाते। जब सीट सवारियों से अट जाती तो पीछे से स्वविवेक से दो लाईन स्टेंडिंग पैसेंज़र की लगना आरम्भ हो जाती। यहाँ भी कौम्पिटिशन होता। कौन कहाँ खड़ा होगा, कौन किसके साथ और आसपास...जैसी प्राथमिकता पहले से तय हो जाती।

बस में स्त्री-पुरूष का भेद मिट जाता। छोटी-बड़ी उम्र में अन्तर नहीं होता। पद और प्रतिष्ठा का सवाल बस से बाहर छूट जाता। बस में सवार होते ही सभी पुरूष ‘सर‘ और स्त्री ’मैडम‘ हो जाती। सतपुड़ा की घाटियों में विद्यमान बटकाखापा हाई स्कूल की प्राचार्य...‘मैडम’। बटकाखापा से ठीक पहले घाटी के नज़दीक पड़ने वाले झिलमिली गाँव की मीराबाई पियून भी ‘मैडम‘। स्टेट बैंक ग्रामीण शाखा लालावाड़ी के देशमुख भी ’सर‘ और बितौरी जनपद में कार्यरत मिश्राबाबू भी ‘सर’। सब ‘मैडम‘ और सब ‘सर‘। सम्बोधन का समाजवाद यहाँ एक निश्चित समय और दूरी तक साथ चलता।

टाइमिंग वाली इस बस में प्रायः सभी वेतनभोगी कर्मचारी होते। उनमें ज़्यादातर शिक्षाकर्मी और संविदा शिक्षक। इन्हें लोग नये युग का अध्यापक कहते। इन्हें पुराने समय के मास्साब की अपेक्षा कम वेतन मिलता। इन्हें पेंशन की सुविधा नहीं थी। प्रबन्धन का मानना था कि ये कभी बूढ़े नहीं होगे। अभी तक उनमें से कोई भी नहीं हुआ इसीलिए निर्णय सही सा भी लगता। पुराने पड़ चुके मास्साब इन्हें हेय दृष्टि से देखते। एक ही विभाग, एक ही स्कूल में, एक साथ, एक जैसा अध्यापन कार्य करने के बाव़जूद इन्हें पृथक समझा जाता। उनके मध्य प्रतिष्ठा की यह बारीक सी रेखा बस में देखने को नहीं मिलती और सब एक दूसरे के लिए अच्छे सहयात्री होते।

इस टाइमिंग में उसने खाली सीटें कभी नहीं देखा था। आज देखा तो बस में होने का भ्रम हुआ। पहला सवाल अपने आपसे ही किया ‘‘...क्या यह वही बस हैं...? जिसमें वह रोज़ सफ़र करता हैं। सफ़़र के दौरान साँस लेने में भी परेशानी होती हैं। वर्माजी द्वारा छोड़ी गई साँस को मिश्राजी ले लेते हैं। मिश्राजी द्वारा छोड़ी साँस को मर्सकोले मैडम और उनके द्वारा लेकर छोड़ चुकी साँस को कोई और लपक लेता। बस में कुछेक ही लोग ऐसे थे, जिनकी छोड़ी गई साँस को लपक लेने के लिए कुछ विशेष कारकुन में होड़ होती। इस तरह उनकी कोशिश होती कि वे उनके पास वाली सीट पर बैठ सके। सीट न मिलने की स्थिति में नज़दीक ही खड़े रह सके... यात्रियो की तरह इस तरह के विचारों को भी ढोने वाली क्या यह वही बस हैं..? ’’

ख़ुद के द्वारा किये गये सवाल का जव़ाब वह ख़ुद को दे पाता, उससे पहले ही कन्डक्टर सोलू की आवाज़ कान से टकराई ‘‘...मास्साब! आज तो सो कर चलो। पूरी बस खाली हैं। सेठ तो मना कर रहे थे। केन्सिल कर दो। हमीं ने समझाया ‘‘...मालिक रास्ते में चार हफ्ते वाले बाज़ार पड़ते हैं। डीजल,ड्राइवर-कन्डक्टर का खर्च निकालकर हज़ार-दो हजार तो बच जायेंगे। जाने दे। तब माने। थोड़ा लेट ज़रूर हो गये पर रस्ते में कवर कर लेंगे। आप तो अपने टेम पर पहुँच जाओगे। फिकर नाट मास्साब। ये कोई सरकारी बस तो हैं नहीं। सवारी आये या न आये, टेम हुआ, चलते बनो। लागत भी निकालना पड़ता हैं...मास्साब और कुछ लोगों को सस्ते में भी ले जाना पड़ता हैं...‘‘ कहते हुए वह खीं, खींकर हँसने लगा। कुछ देर पहले जो रूआंदा चेहरा लेकर दरवाज़े पर खड़ा था। अगले दो-तीन स्टाप पर दस पन्द्रह सवारी के चढ़ जाने पर निश्चिंत हो उठा। मानो वे सवारी न हो, बस का डीजल हैं, जिनके भर जाने से बस आगे बढ़ पाई।

’’ठीक किया सोलू भाई! ज़रूरी काम नहीं होता तो कौन आज बस में चढ़ता। सब की तरह हम भी घर में होते।‘‘ उन्होंने मुसकरा कर उसकी बातों का जव़ाब दिया। वे अच्छी तरह समझ रहे थे। सोलू को उनका सीट पर बैठा होना और छुट्टी के दिन रियायती किराया लेना अखर रहा थां। हालाँकि रोज़ की तरह आज भी मास्साब वाला बस्ता साथ था जो उसके नियमित या़त्री होने का प्रमाण था।

‘‘मास्साब रोज़ तो उल्टे-सीधे होकर जाते हो। आज बैठकर भी देख लो, ज़रूरी काम के बहाने।‘‘ कहते हुए वह जोर से हँसा। वह झेंपकर रह गये। सभी जानते थे...वह बस स्टाप से ठीक एक किलोमीटर के अन्तर की दूरी से सवार होता हैं। बस सवारियों से भरकर आती। कुछ पीछे की सीट, कभी खाली रह भी गई तो उसके स्टाप से पहले, दो-तीन जगह रूक कर सवारी लेने के कारण खाली नहीं रह पाती। उसे कभी सीट नहीं मिल पाती थी। कभी-कभार ही ऐसा होता कि बोनट के पास दो एक बित्ता जगह खाली होने पर सहृदयी यात्री बैठने के लिए जगह दे देते अन्यथा वहाँ भी नहीं। खड़े होकर सफ़़़र करने के अतिरिक्त अन्य कोई चारा नहीं था। इस टाईम पर बस मालिक और ड्राईवर-कन्डक्टर का कब्जा था। अन्य कोई बस-टैक्सी उसके आगे पीछे नहीं जा सकती थी। वह सब की तरह लाचार था। हालाँकि वह और ढेर सारी लाचारी के साथ नौकरी करने को विवश था पर आज अपनी विवशता और लाचारी पर कन्डक्टर का हँसना उसें अन्दर तक आहत कर गया।

संविदा शिक्षक के पद पर नियुक्त होने के बाद लगातार वह महसूस कर रहा था कि हर कोई, हर समय, उस पर उसके मित्रो पर ताने कसता हैं। कोई कहता ‘‘...इतने ही पढ़े-लिखे थे तो यहाँ आदिवासी इलाके में क्यूँ मास्टरी करने चले आये..? कोई कहता... पढ़ाना-लिखाना कोई मजाक नहीं। नौकरी हैं। नौकरी में पसीना बहाना पड़़ता हैं। स्कूल के बाद भी ढ़ेरों काम होते हैं, कर पाओगे...?‘‘ यह तो बाद की बात हैं। नौकरी के पहले ही दिन हद हो गई... वे जब गाँव पहुँचे, गाँव के सरपंच पान का बीड़ा दबाये स्कूल में बैठे थे। हैड मास्टर को परिचय और नियुक्ति पत्र दिया तो उनके कुछ कहने के पहले ही सरपंच महोदय बीच में बोल पड़े ‘‘....अच्छा हुआ आप लोगन चले आये। अभी तक इस्कूल की चपरासन अ-अनार का, इ-इमली का करत रही। अब आप लोगन के आने से वाकी छुट्टी। बहुतच काम करत रही-बेचारी। पूरे इस्कूलन के कमरों क झाडू पोछन से लेकर, पानी भरन तलक की जिमेदारी व के ऊपर थी। साथ में उपद्रवी लोंडों को भी वही सीधा करत रही। आप लोगन आ गय हो तो चलो...हैड मास्टर से कह देत हैं... एक-एक किलास दे देगे। आपको समय भी कट जाहे। हमार गाँवन के टुरा-टारी भी कछु सीख जाहे।‘‘ इस तरह उस गाँव में उसकी पहली उपस्थिति बेहद अपमानजनक रही। उसे अपने आप पर गुस्सा आया। क्या एक चपरासन द्वारा किए जाने वाले कार्य के लिए उसे चयनित किया गया हैं। समय की नाजुकता को देखते हुए साथी ने समझाया... सरपंच की बातों पर ध्यान न दे। देखा नहीं उसके मुँह से कैसी दुर्गंध आ रही है। बुजुर्ग आदमी हैं। आदिवासी सभ्यता व संस्कृति इसी तरह ठेठ होती हैं पर इन लोगों की भावनायें बहुत कोमल होती हैं। अब आ ही गये हैं तो धीरे-धीरे परिचय हो जायेगा। हमें उनकी बातों का बुरा नहीं मानना चाहिए।‘‘ वह तीन थे, तीसरी महिला। महिला ने अपने घर-परिवार से लगभग विद्रोह कर शिक्षण कार्य करने का संकल्प लिया था। वह भी मर्माहंत हो उठी। पर सभी ने अपनी बेरोजगारी के खिलाफ़़ समझौता कर लिया था। यही वह समय था जब उनकी नई पहचान बनना आरम्भ हो रही थी। वे जिला मुख्यालय से 85 किलोमीटर दूर सतपुड़ा अंचल के आदिवासी इलाके मंे अध्यापन कार्य करने जाते थे।

रोज़ जो बस ‘सर‘ और ‘मैडम‘ के सम्बोधन से भरी होती, आज वही बस बाजार-हाट के छोटे-बड़े व्यापारियों के रे, बे.. से भरी थी। बस में सीट मिल जाने के बाद भी उसे घुटन महसूस हो रही थी। उसे लगा, वह किसी अनजान रास्ते पर चल पडा हैं। यह उसके नित्य का सफ़़र नहीं हैं। कन्डक्टर का व्यवहार अन्य दिनों की तरह नहीं हैं। रोज़ निर्धारित किराये से दस रूपये कम में, नौकरी पूरी करा देने वाला सोलू मुँह फुला रहा है। यात्रियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। भरी बस को देखकर जब लोग ना-नुकुर करते तो वह कहता ‘‘...अरे! आप अन्दर तो चलिए, बहुत सीट खाली हैं। इस तरह कहते हुए वह उसकी तरफ़ अवश्य देखता, मानों सीट पर बैठकर उसने कोई बड़ा अपराध कर लिया हो। वह सोलू की मक्कारी को समझ रहा था और अन्दर ही अन्दर गुस्से से तप भी रहा था। अपने पद और पहचान की मर्यादा को बनाये रखने के लिए गुस्सा पी जाना उसकी विवशता थी।

’’उल्टे-सीधे होकर सफ़र करना हमारी नियति बन चुकी हैं। क्या यही मास्साब या तथाकथित सर होने की पहचान हैं..!‘‘ सोचते हुए वह और अधिक गुस्से से उबल पड़ा। उसंने खिड़की के बाहर नज़र दौड़ाई, यह सोचकर कि बिना किसी विवाद के सफ़र पूरा हो जाये। दूर-दूर तक सतपुड़ा के पहाड़ हरियाली की चादर ओढ़े सीना तानकर खड़े थे। पहली बार उसने आँखें भरकर देखा। रोड़ के किनारे लगे बिजली के खम्बें और पेड़ अपने हाथ उठाकर अभिवादन करते से जान पड़े। उसने चलते हुए गाँव और नगर को बहुत गौर से देखा। बाव़जूद इसके सब जगह उसे सोलू कन्डक्टर का कुटीलता से भरा चेहरा ही नज़र आ रहा था। वह झिलमिली तक का रियायती दरों का किराया दे चुका था। उसे अब इस बात का पछतावा होने लगा था।

वह ठीक सुभांगी मैडम की सीट के बाजू में बैठा था, जहाँ वह नियमित बैठकर सफ़र करती हैं। उसके आसपास बैठना या खड़े रह पाने की स्थिति से वह सदा बचता रहा। वह दूर कहीं से उसके रिश्ते में आती हैं, पर उनके बीच जान-पहचान का कोई अवसर नहीं आया। यह बात सुभांग भी अच्छी तरह जानती थी कि वह उसी के समाज का है। बाव़जूद इसके दोनों ने कभी परिचय की पहल नहीं की। दोनों अविवाहित थे। दोनों ही नहीं चाहते थे कि उनका होने वाला जीवन साथी अध्यापन का कार्य करता हो। दोनों की सोच समान थी। दोनों की पहचान समान थी। समानान्तर चलने वाली रेखाएँ नहीं मिलती। वे भी नहीं मिले। उसे लगा वह जिस सीट पर बैठा हैं, उसे वहाँ नहीं बैठना चाहिए। यह उसकी सीट नहीं हैं। सुभांगी किसी और को इस सीट पर बैठा देखना चाहती हैं। मन में इस तरह के ख़्याल आते ही वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ। उसकी इस हरकत पर सोलू चैक पड़ा। ‘‘क्यों मास्साब! सीट गड़ रही हैं क्या..?‘‘ कहते हुए वह खिलखिलाकर हँस पड़ा।

रोक... रोक... रोक बस... उन्होंने दहाड़ते हुए कहा। सब्र का बांध टूट चुका था।सोलू सकपका कर रह गया।

‘‘बेवकूफ़ दस रूपये कम किराया लेता है तो क्या उपकार करता हैं। हमारी मजबूरी पर हँसता हैं। रोक... रोक बस..., चिल्लाते हुए वह एकदम गेट के समीप आ गया। ड्राइवर ने जोर से ब्रेक लगा दिए। चीं...ची... की कर्कश ध्वनि के साथ बस रूक गई।

‘‘नालायक कहीं का...’’ कहते हुए वह गेट के समीप खड़े सोलू कन्डक्टर के तरफ़ बढ़ा और जमकर एक हाथ उसकी कनपटी पर रसीद कर बस से नीचे उतर गया। बस की खिड़कियों से कई जोड़े आँखें उसे जाते हुए देख रही थी पर किसी ने कुछ बोला नहीं। वे सब कन्डक्टर को मिले इस सबक से खुश थे।

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