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खुशी



“रूपल निहार कहा है?’ घर में आते ही देवांग ने पूछा.

“सो गया रोते रोते, आज आप उसे पटाखे लेने ले जाने वाले थे. आपका इंतजार करते करते सो गया. वो तो खाना भी नहीं खानेवाला था. पर बाबुजीने समजाबुजाकर उनके साथ उसे भी खाना खिला दिया.”

“अरे हाँ, आज शाम को ऑफिस से निकल ही रहा था की अचानक एक मीटिंग आ गयी सो जाना पड़ा. पर फिर भी मैं कैसे उसे पटाखे न लेने के लिए समजाता? मेरी समजमे तो कुछ नहीं आ रहा है.. तुम तो जानती हो मैं क्यों पटाखे नहीं लाता.” देवान्गाने शू की लेस खोलते जवाब दिया.

“हाँ आपकी बात सही है, पर वो तो छोटा बच्चा है ना, दुसरे बच्चोको देखेगा तो उस का भी मन तो करेगा ही.. खैर ! वो बात छोडीए आप फ्रेश हो जाईए मैं खाना लगाती हूँ.. सुबह वो जल्दी स्कूल चला जायेगा तब सोचेंगे.”

खाना खाने के बाद देवांग रोज की तरह अपने स्टडीरूम में गया, पर आज उसका मन पढ़ने में नहीं लग रहा था. वो बाल्कनी में आँखे मूंदकर जुले पर बैठा था. उसकी नजर के सामने खून से लथपथ छोटे छोटे बच्चे आ गए.

वो उस वक्तमे पहुँच गया जब वो खुद निहार के जितना था. और अपने पिता रवीन्द्रभाई से इसी तरह पटाखों की जिद किया करता था. पर तब रवीन्द्रभाई के पास इतने पैसे नहीं थे. उन का गुजर-बसर जैसे तैसे हो जाता था. दो वक्त के खाने का इंतजाम भी वो मुश्किल से कर पाते थे. हर दिवाली पर देवांग जिद करता था और उसके पिता उसे टालते रहेते थे. पर इस साल तो तय किया था की देवांग को पटाखे दिलाना ही है. इस के लिए उन्होंने सालभर से थोड़े पैसे भी बचाए थे.

एक दिन नोकरी से लौटते वक्त उन्हें पुराने दोस्त रामजीभाई मिल गए, जो एक पटाखों की फेक्टरी में काम करते थे. रवीन्द्र्भाई ने सोचा अच्छा है फेक्टरी में सस्ते पटाखे भी मिल जायेंगे और बेटा भी खुश हो जाएगा. उन्हें देवांगका खिलखिलाता चेहरा सामने दिखाई दिया. दुसरे दिन छुट्टी थी उन्होंने रामजीभाई से फेक्टरी पर जाने की बात तय की.

रात को देवांग से कहा,

“देवांग बेटा, कल हम पटाखों की फेक्टरीमें जायेंगे. जहा पटाखे बनते है. तुम्हे जो जो पटाखे पसंद हो वहां से ले लेना.” पटाखों का नाम सुनते ही देवांग कितना खुश हो गया था.

दुसरे दिन वो पिता से जल्दी उठकर तैयार हो गया. बेटे के चहरे पर खुशी देखकर उसकी माँ वासंतीदेवी भी कितनी खुश हो गई थी. भगवान ने उन्हें देव जैसा बेटा दिया था पर बेटे की छोटी छोटी खुशी भी वो दे नहीं पा रहे थे, जिस का उन्हें हमेशा अफसोस रहेता था. आज रवीन्द्र्भाई बेटे को खुशी देने जा रहे थे तो वो भी उतनी ही खुश थी.

बाप-बेटा फेक्टरी पहुंचे. रामजीभाईने पहेले उन्हें सारी फेक्टरी दिखाई. बहुत बड़ी जमीं पर थोड़ी थोड़ी दूरी पर छोटे छोटे पतरे के शेड थे. फेक्टरी में न तो पिने के पानी की सही व्यवस्था थी, न तो प्राकृतिक हाजत की. चारो और पोटेशियम की सर फट जाए ऐसी दुर्गन्ध थी. फेक्टरी में वेंटीलेशन की भी कोई सुविधा नहीं थी. वहा छोटे छोटे बच्चो को काम करते देख रवीन्द्रभाईने सोचा ना जाने कैसे वो सब यहाँ काम करते थे. पर छोटे से देवांग के मन में ये विचार कहा से आता ?

वो तो पटाखों को देखने में मग्न था. पर वहा सारे बच्चो को ही काम करते देख कर एक सवाल उस के मन में आया. उस ने रामजीभाई से पूछा,

“काका, यहाँ सारे बच्छे ही काम करते है. उन्हें स्कूल नहीं जाना होता?”

बेटा ये लोग बहुत गरीब है और घर के सभी लोग काम न करे तो उन्हें दो वक्त का खाना कहा से मिलाता ? सब के माता-पिता और जगह काम करते है इन लोगो से भारी वजन उठाने का काम तो होता नहीं तो ये सब बच्चे यहाँ काम करते हैं. स्कूल जाने का तो इन लोगो का सपना ही रह जाता है. इनमे से कइओ को तो स्कूल किसे कहेते है वो भी पता नहीं होगा.” रामजीभाईने दुःखभरे स्वर से कहा.

ये सुनकर देवांग ने खुद को बहुत बड़ा अमीर माना था. वो तो स्कूल भी जा रहा है और उसे काम पर भी जाना नहीं पड़ता.

फिर रामजीभाई उन लोगो को पटाखों के स्टोर में ले गए. कितने सारे पटाखे... ? एक साथ ढेर सारे पटाखों को देखकर देवांग पागाल सा हो गया था. मानो पटाखों के शहेर में वो खो गया हो. जब देवांग पटाखे देखने में गम हो गया था तब रवीन्द्रभाई ने रामजीभाई से पूछा,

“ रामजी, उन शेड में से पटाखों की इतनी सारी गंध आ रही थी की मुझे तो थोड़ी ही देर में ही घुटन सी होने लगी थी तो ये बच्चे यहाँ कैसे काम करते होंगे ?’

“जाने दो रवीन्द्र, तुम्हें सुनकर दुःख होगा. इन फेक्टरी के मालिको को अपने मुनाफे के अलावा कुछ सुज़ता नहीं. वो इन शेड का, अपने माल का बीमा निकालते है, पर इन मासूमो की जिन्दगी का कुछ नहीं. इन फेक्टरी में काम करते कई बच्चो को साँस की बीमारी हो जाती है. और तुम्हे पता है, इन लोगो को मजदूरी में कितने पैसे मिलते है ? २०-३० रूपये. वो तो मैं पढ़ा नहीं हूँ और ये लोग मुझे तनख्वाह भी अच्छी देते है, इस लिए ऐसी जगह काम करता हूँ और अब मैं भी इन सारी बातो का आदी भी हो गया हूँ.” उदास स्वर से रामजीभाईने जवाब दिया.

देवंगने थोड़े पटाखे पसंद किये थे और अचानक बाहर से एक बड़े से धमाके की आवाज़ने सबको दारा दिया. सब स्टोर से बाहर आ गए. बाहर आते ही रामजीभाई तुरंत समाज गए की क्या हुआ था तो वो फिर अन्दर आ गए और अपना काम करने लगे. ये देखकर रवीन्द्रभाई अन्दर आये और उनके पूछने पर रामजीभाई ने कहा, “यहाँ तो आये दिन ऐसे धमाके होते ही रहेते है.” रवीन्द्र्भाई के लिए ये नया था. उन का जवाब सुनकर तुरंत ही वो बाहर आ गए. वो सोच ही रहे थे की देवांग पर इस बात का क्या असर होगा ? बाहर आकर उन्होंने देखा देवांग डर से कांप रहा था और उन्होंने तुरंत देवांग को गले लगा लिया.

जिस शेड में धमाका हुआ था वह कम करने वाले बच्चो के फुरचे उड़ गए थे. उन का मांस इधर-उधर फ़ैल गया था. चारो ओर खून ही खून था. देवांग को लेकर रवीन्द्र्भाई स्टोर में आये. रामजीभाई ने पटाखे पेक कर दिए थे. पैसे देकर पटाखे लेकर बाप-बेटा वहा से निकल गए. इतना सारा खून और दर्द से कराहते बच्चे रवीन्द्र्भाई ने पहली बार देखे थे तो देवांग की तो बात ही क्या करनी.

बाप-बेटा घर आ गए. उन लोगो के चहरे पर खुशी की जगह दुःख देखकर वासंतीदेवीने वजह पूछी उस के उत्तरमे रवीन्द्र्भाईने सारी बात बताई. बात सुनकर उन्होंने तुरंत ही देवांग को सीने से लगा लिया. उन्हें खुशी इस बात की थी की उनका बेटा इस अकस्मात् से बच गया था. तीन चार दिन पूरे घरमे उदासीने जगह ले ली थी. जब जब रवीन्द्रभाई देवांग को पटाखे जलाने के लिए बोलते देवांग की नज़र के सामने वो ही खून से लथपथ बच्चे आ जाते और वो रोने लगता. तब से ले कर आज तक इस घर में कभी पटाखे नहीं आये थे..

फिरफिर तो रविन्द्रभाई ने नोकरी छोड़ छोटा सा बिज़नेस शुरू किया और सफल भी रहे. ज्यादा कमाई भी हुई पर देवांग ने लिया हुआ नियम आज तक निभाया था. अब जब उसीका बेटा निहार पटाखों के लिए ज़िद कर रहा है तब उसे कैसे समजाये ? देवांग की पीड़ा उस के आंसुओ के रूप में उस की आंखोसे उस के गालों पे बह रही थी.

देवांग के सर पर प्यारभरा हाथ फिरा. उस ने आँखे खोल कर देखा तो सामने रविन्द्रभाई खड़े थे. वो उनसे लिपटकर बिलख बिलख कर रोने लगा. वासंतीदेवी के गुजर जाने के बाद दोनों बाप-बेटा एक दुसरे की पीड़ा बिना बोले ही समज जाते थे.

रविन्द्रभाई जानते थे की देवांग क्यों रो रहा है. उन्होंने थोड़ी देर देवांग को रोने दिया. फिर पानी देते हुए कहा, “बेटा तू फिकर मत कर. इस का हल मैं निकालुगा तू बस आराम से सो जा.” उन्होंने बोल तो दिया की... पर कैसे.. वो सोचने लगे क्योंकि.. जब देवांग ने तय किया था तब वो निहार से बड़ा था और गरीबी उतनी थी की वो समजदार भी था. पर अभी निहार तो छोटा है और उस की सारी इच्छाए उस के जन्मा से ही पूरी होती आई है. उसने गरीबी देखी ही नहीं. कुछ तय कर के वो भी सो गए.

आज निहार का स्कूल में आखरी दिन था. कल से दीपावली की छुट्टीयां शुरू हो रही थी. निहार को स्कूलाबस में बिठाकर रविन्द्रभाई अपने मित्र रामजीभाई से मिलने गए. अब वो तो कारखाने पर नहीं जाते थे पण उन की पहेचन थी. रविन्द्रभाईने अपनी समस्या उन को बताई और मदद करने को बोला. रामजीभाई को राजी कर दुसरे दिन कारखाने पर जाने का तय करा के वो घर आये. दोपहर को निहार स्कूल से आया तब अपने दादा के साथ सोने गया. रविन्द्रभाईने प्यरा से निहार को पूछा, “ बेटा, तुम्हे पता है पटाखे कहाँ और कैसे बनते है?” निहारने ना कहा.

“तुम्हें देखने जाना है ?”

“हाँ दादाजी, और हम वहीं से पटाखे ले भी लेंगे.” पहेले खुश हो कर बादमें मुह चड़ा कर बोला “पापा तो रोज कहेते हैं दिलाऊँगा दिलाऊंगा पर दिलाते ही नहीं.”

“ठीक है तो हम कल पटाखेकी फेक्टरी देखने जायेंगे और तुम वहीँ से पटाखे ले भी लेना.”

वहा पहुंचकर रविन्द्रभाईने देखा इतने सालो में अभी भी कुछा नहीं बदला. पर निहार के लिए तो सब नया था. उसने सोचा था कोई बड़ी सी फेक्टरी होगी. पर यहाँ तो...

छोटे छोटे शेड में छोटे छोटे बच्चे काम कर रहे थे. किसी के बदन पर ढंग के कपडे नहीं थे और सब के बदन पर जलने के दाग थे.

“दादा इन लोगो के पास कपडे नहीं हैं? और लोगो के बदन पर ये दाग कैसे है ?” उसने रामजीभाई से पूछा.

“बेटा, यहाँ काम करते समय आकस्मात से आग लगती है तब ये बच्चे जल जाते है उसीके दाग है ये. और ये बच्चे इतने गरीब हैं की उन लोगो के पास रोज पहेनने के छोडो त्यौहार के दिन भी पहनने के लिए कपडे नहीं होते.” रामजीभाईने दुखी हो कर कहा.

“तो ये लोग बगैर कपड़ो के स्कूल कैसे जाते होंगे ?”

“बेटा इन लोगों ने स्कूल का नाम भी सूना नहीं होगा जाने की बात तो दूर रही.”

निहार को बहुत बूरा लगा. ये बच्चे स्कूल भी नहीं जा सकते और इन के पास कपडे भी नहीं है.

मुझे तो पापा दीवाली में कितने सारे कपडे दिलाते हैं और इन लोगो के पास एक भी कपड़ा नहीं. वो दुखी हो गया. उस ने सोचा यहाँ काम करनेवाले बच्चो के लिए छोटे छोटे कच्चे शेड और पटाखों के लिए बड़ा सा पक्का मकान? रामजीभाई उसे जहा पटाखे रखते थे वो स्टोर में ले गए. पर निहाराका ध्यान पटाखों में नहीं था. वो तो रविन्द्रभाई के पास आया.

“दादा, पापा ने पटाखों के लिए जो रूपये दिए हैं उस मे से हम इन बच्चो के लिए कपडे ले तो पापा डांटेंगे तो नहीं ना?” इतने सालोंमे उन्हें नहीं आया था ऐसा विचार इस छोटे से निहार के मन में कैसे आ गया? बेटा तो देवांग का ही है ना? वो बहुत खुश हुए.

“नहीं नहीं बेटे, पापा बिलकुल नहीं डांटेंगे, पापा तो खुश होंगे. उपरसे वो ज्यादा पैसे देंगे अगर कम हुए..”

“सच दादाजी, पापा ज्यादा पैसे देंगे ? तो तो फिर हम इन के लिए कपड़ो के साथ साथ चप्पल भी ले लेंगे. फिर तो इन लोगो के पैर में भी नहीं जलेगा.”

रविन्द्रभाई बहुत खुश हुए. अपने पोते की सोच पर उन्हें गर्व सा हुआ. रात को सारी बाते उन्होंने देवांग को बताई तो उसे भी अपने बेटे पर गर्व हुआ. दुसरे ही दिन कपडे, चप्पल और मिठाई खरीदकर उस फेक्टरी में सब बच्चो में बाँट आये.

आज नया साल था. रवीन्द्रभाई, देवांग और रूपल निहार के लिए गर्व महेसुस कर रहे थे.

निहार के चहेरे पर आज बहुत खुशी थी वो देखकर सब खुश थे.

पर सब से खुश वो बच्चे थे. आज वो नया साल था, जब उन्होंने नए कपडे और नयी चप्पल पहनी थी और वो लोग भी मिठाई खा रहे थे.