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किंबहुना - 1

अशोक असफल

1

जीएम मीटिंग लेने वाले थे। आरती के हाथ पाँव फूल रहे थे।

फाउन्डेशन की एक और प्रोजेक्ट अफसर नीलिमा सिंह उसे नष्ट कराना चाहती है। जीएम से व्यक्तिगत सम्बंध हैं उसके। स्ट्रेंथ मुताबिक फाउन्डेशन में प्रोजेक्ट अफसर की एक ही पोस्ट है। पहले वह जयपुर में थी तो सुखी थी। कोई प्रतियोगी न था। पर मुम्बई मैनेजमेन्ट ने उसका तबादला यहाँ रवान में कर दिया। एक साल में कड़ी मेहनत और संघर्ष से उसने काम जमा लिया तो कटनी फाउन्डेशन से अचानक नीलिमा भी यहीं आ गई। उसके आ जाने से पोस्ट सरप्लस हो गई। आरती पर एक बार फिर तबादले की तलवार लटक गई। पता न था, एक साल बाद ही यह गाज गिरने लगेगी। नीलिमा की तरह वह किसी को मैनेज नहीं कर सकती। वह तो ठहरी भावुक कवि-हृदय। आए दिन होने वाली इन बातों से इतना तनाव रहने लगा कि वह अपना लिखना-पढ़ना और बच्चों के साथ हँसना-बोलना भूल गई।

सिर तनाव से फटा जा रहा था। डेढ़ दो घंटे से फोन पर भाभी से दुखड़ा रो रही थी। उसने रास्ता बताया कि रेखा को फोन कर लो, दीदी। रेखा रायपुर में पुलिस इंस्पैक्टर है। उसके मामा श्वसुर भिलाई केपी सीमेंट में डीजीएम हैं। और भाभी ने ही यह क्लू दिया था कि, दीदी आपके सीमेंट फाउन्डेशन के जीएम से उनका जरूर कुछ न कुछ परिचय निकल आएगा! उनके एक फोन से ही आपको राहत मिल जाएगी।

तब उसने रेखा को फोन लगाया और सारी बात बताई तो उसने उनका नम्बर दे दिया।

दिन भर की ऊहापोह के बाद बहुत हिम्मत कर गई शाम फोन लगाया उसने, कहा, जी मैं रेखा की बड़ी बहन आरती, बलौदा बाजार से...आवाज काँप रही थी।

जी, कहें, उधर से आत्मीय स्वर सुनाई दिया।

जी, कैसे कहें, वह अजीब हिचकिचाहट से भरी थी।

कहें ना! आप तो रिश्तेदार हैं। केशव ने फोन पर बता दिया है कि आपकी कुछ आॅफीसियल प्राॅब्लम है।

हिचकिचाहट इसलिए कि रेखा ने केशव नेताम से लव मैरेज की थी, तब उसने, माँ ने, भाई ने किसने विरोध नहीं किया! असल वजह यही कि हम कायस्थ, वे आदिवासी। और उसने खुद समझाया कि प्यार-व्यार कुछ नहीं होता। तुम्हें पता है, मैं खुद भी कर के देख चुकी हूँ! शादी अपनी जाति में ही करना चाहिए।

पर केशव पुलिस में इंस्पैक्टर थे। रेखा आदिवासी समुदाय में अंतर्जातीय विवाह का लाभ देख रही थी। आरक्षण पा कर वह अच्छी नौकरी में जाना चाहती थी। अव्वल तो पुलिस में।

किसी की एक न चली। अपनी कौन चला पाता! पापा का दिमाग तो एक्सीडेंट के कारण बच्चों जैसा हो गया था। भाई बेरोजगार और माँ की कौन सुनता! जब उसने खुद नहीं सुनी। मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति से बात कर बैठी और घर को बताए बिना कोर्ट मैरिज कर ली!

वह किस हैसियत से रोकती रेखा को। भले उम्र में बड़ी और अनुभवी थी। लव-मैरिज का खामियाजा भी भुगत रही थी!

बोलिए ना! फिर वही आत्मीय स्वर।

जी, आवाज कट रही है। शायद, बैटरी लो पड़ गई है... उसने बचने की कोशिश की, थोड़ी देर बाद फोन लगाती हूँ, जी!

तब थोड़ी देर में वाट्सएप पर एक अपरिचित नम्बर से मैसेज आया, नमस्ते! नीचे नमस्ते की मुद्रा में जुड़े हुए गेहुँआ रंग के हाथ!

डीपी पर उँगली रखी तो भरी-भरी मूँछों वाला एक साँवला पुरुष मुस्कराने लगा।

वह अतीत में खो गई।

पापा निर्माण विभाग में सब-इंजीनियर थे। क्षेत्र में खूब नाम था। कुछ पद और कुछ व्यक्तित्व के कारण। क्योंकि वे कविताएँ भी खूब लिखते। और गोष्ठियों में गा-गाकर सुनाते। उनके मित्र घर आते, घर पर भी खूब महफिल जमती। वे हमेशा महफिल की शान होते। कभी कविता पाठ चलता कभी रामायण पाठ। रामायण की चैपाइयाँ सुनना और फिर उनका अर्थ उनके मुख से बहुत अच्छा लगता। बुलन्द आवाज यूँ लगती जैसे कोई बड़े कथावाचक हों।

चार भाई-बहनों, एक भाई तीन बहनों में आरती सबसे बड़ी थी। वह जागरूक परिवार था। जहाँ लड़कियों को भी लड़कों के समान शिक्षा दी जाती। तबादले पर जहाँ भी जाते सरकारी क्वार्टर मिलता, और घर का काम करने के लिए नौकर। क्योंकि उन दिनों निर्माण विभाग में मजदूरों की एक बड़ी गेंग हुआ करती थी। जो भवन निर्माण, सड़क, पुल-पुलिया निर्माण आदि में लगी रहती। तब कोई शासकीय कार्य प्राईवेट ठेके पर नहीं कराया जाता था। हर निर्माण कार्य विभाग ही करवाता।

क्वार्टर के बाहर पेड़ पौधों, फूल पत्तियों से भरा एक बड़ा सा बगीचा होता। घर में जरूरत की लगभग हर चीज होती थी।

मम्मी एक घरेलू महिला थीं। घर सँभालने के अलावा वे बहुत अच्छा गाती थीं। इसलिए अपने क्षेत्र की भजन मंडली में उनका बहुत नाम था। ढोलक भी गजब की बजातीं। देखने में भी बहुत सुंदर! अब माँ-बाप दोनों ही कलाकार तो उनकी पहली संतान आरती साधारण कैसे होती! सो, ग्यारह-बारह की उम्र से उसने कविता लिखना शुरू कर दिया था। कविता का गणित नहीं पता था, कविता कैसे लिखते हैं ये भी नहीं पता था, पर फिर भी वह कविता लिखने लगी थी।

सबसे बड़ी थी, उस पर लड़की, इसलिए छोटे भाई बहनों को सँभालने की जिम्मेदारी निभाना अपने सीख गई थी। यों वह बचपन से ही शालीन स्वभाव की थी। खिलखिला के हँसना, बे-मतलब घूमना फिरना, बहुत सारी सहेलियाँ होना उसके साथ कभी नहीं हुआ। उसकी गम्भीरता देख पापा कहते- मैं अपनी बेटी को डॉक्टर बनाऊँगा, बहुत पढ़ाऊँगा, यह बहुत समझदार बच्ची है। बहुत नाम कमाएगी, बहुत आगे जाएगी।

पापा की वे बातें याद करते आज भी दिल भर आता है आरती का। उन्होंने हमेशा ही बच्चों को खूब पढ़ाना चाहा। अच्छे स्कूल, ट्यूशन, खेलकूद सब में आगे बढ़ाना चाहा। उसे भी खूब उत्साहित करते। पर एक ऐसी घटना घट गई जिसने समूचे परिवार का जीवन बदल कर रख दिया।

वह होली का दिन था। बच्चे लोग रंग-गुलाल और खाने-पीने में मस्त थे। मम्मी भी ढेर सारे पकवान और खाना बना कर अपनी सखियों में व्यस्त थीं। पापा घर पर होली मना कर दस-ग्यारह बजे अपनी मोटर साइकिल लेकर पास के शहर चले गए, वहाँ उनका हेड ऑफिस के साथियों के साथ होली खेलने का कार्यक्रम था। इस बीच सभी बच्चे होली मना कर और खा-पी कर, रंग छुड़ा कर आराम करने लगे। पापा शाम तक भी नहीं लौटे तो कोई परेशान न हुआ क्योंकि वे अक्सर ही काम के सिलसिले में, तो कभी दोस्तों से मिलने के लिए रुक जाते और देर रात तक घर लौटते। मम्मी तनिक गुस्सा जरूर करतीं फिर भूल जातीं। मगर उस दिन भुनभुना रही थीं कि ये क्या तरीका है...त्योहार के दिन भी घर पर न रहना!

तब रात लगभग आठ बजे उनके दो सहकर्मी घर आए। उन्होंने बताया कि कुलश्रेष्ठ साब का एक्सीडेंट हो गया! सुन कर मम्मी ने रोना शुरू कर दिया। तब उन्होंने खुलासा किया कि दोपहर होली खेल कर लौटते में लगभग दो बजे एक्सीडेंट हुआ था। वे रास्ते में गिरे हुए पड़े थे। किसी आते जाते राहगीर ने पहचान कर हम लोगों को सूचना दी। तब उन्हें अस्पताल पहुँचाया, किंतु सर पर गहरी चोट लगने से उन्हें होश नहीं आया तो डॉक्टरों ने नागपुर के लिए रेफर कर दिया। हम लोग वहाँ लेकर दौड़े। जब वहाँ भी डॉक्टर ने उन्हें सीरियस बता दिया तो हार कर आपको सूचना देने आए!

वरना तो आप लोगों का इरादा ही नहीं था बताने का, मम्मी ने सिसकियों के बीच कहा, सोचा होगा, इलाज करा कर होश आने पर उन्हें घर पहुँचा देंगे।

आरती उन दिनों तेरह वर्ष की थी और आठवीं में पढ़ती थी।

पापा नागपुर के मेडिकल कॉलेज में भर्ती थे। मम्मी को तुरंत नागपुर जाना पड़ा। तेरह साल की बच्ची अचानक अपने तीन छोटे भाई बहनों की माँ बन गई। उसने बड़ी जिम्मेदारी से भाई बहनों को सँभाल लिया, हालाँकि दो दिन में नानी आ गई थीं।

पापा को होश नहीं आ रहा था। एक्सीडेंट में वे सड़क किनारे पड़े एक गिट्टी के ढेर पर गिरे जिससे उनके सिर में गिट्टी घुस गई थी। डॉक्टर जवाब दे चुके थे। फिर भी सहकर्मियों और मम्मी ने उनके सिर के ऑपरेशन का निर्णय ले लिया।

एक्सीडेंट के दो दिन बाद ही उसकी आठवीं की परीक्षा शुरू हो गई। यह कितना मुश्किल था। पर परीक्षा तो देनी ही थी। सो स्कूल पहुँची अपना पहला पेपर देने। तब पेपर के दौरान ही एक शिक्षक कक्षा में आए और परीक्षार्थियों को बताने लगे कि- परसों जिन कुलश्रेष्ठ साब का एक्सीडेंट हो गया था, वे आज नहीं रहे।

वह जैसे तैसे तो प्रश्नपत्र हल कर रही थी, उनकी ऐसी अशुभ बात सुन यकायक तीखी आवाज में बोली, नहीं सर, पापा अभी नागपुर में भर्ती हैं, उन्हें कुछ नहीं हुआ।

पर उसके हाथ-पैर काँप रहे थे, और शिक्षक पर गुस्सा आ रहा था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा।

जैसे-तैसे पेपर देकर घर आई। उस दिन घर पर पापा का हालचाल पूछने वालों का ताँता लगा रहा। गाँव के कई लोग उनके बारे में पूछने आते रहे। दूसरे दिन उसे पता चला कि पूरे गाँव में अफवाह फैल गई थी कि कुलश्रेष्ठ साब नहीं रहे। उन दिनों सामान्य घरों में फोन नहीं होते थे। मोबाइल तो दूर दूर तक नहीं। जिससे कोई भी जानकारी तुरंत नहीं मिल पाती। पापा का हाल उनके सहकर्मी ही आकर बताते। वे रोज कहाँ आते!

वह रोती नहीं थी। रोती भी कैसे, मम्मी तो पापा के पास नागपुर में ही थीं। घर पर तीन छोटे भाई बहन थे जो उसके सहारे थे। सबसे छोटी बहन सिर्फ तीन साल की थी। आज उस घटना को सोच कर उसे लगता है कि ईश्वर दुख के साथ उसे सहने की ताकत भी अवश्य देता है।

सिर का ऑपरेशन हो गया, पर पापा कोमा से बाहर नहीं आए। उन्हें नागपुर के अस्पताल में रहते डेढ़ महीना बीत गया। इस दौरान सिर का ऑपरेशन दूसरी बार भी कर दिया गया। बहुत खर्च हो गया था। परिवार की क्षमता से अधिक। मम्मी नागपुर में ही रहतीं। कभी-कभी कुछ सामान कपड़े आदि लेने घर आतीं। बच्चों के पास नानी रह रही थीं। इस घटना से आरती का ही नहीं सब बच्चों का बचपन खो गया।

पापा सिंचाई विभाग में सब-इंजीनियर थे, कमाऊ पोस्ट थी, पर उन्होंने कितना कमाया और कहाँ रखा, किस बैंक में, मम्मी को खबर नहीं! क्योंकि उन्होंने कभी बताया नहीं, और न उन्होंने पूछा। अब मुसीबत के दिन थे। उन्होंने तो कुछ जोड़ कर नहीं रखा। सोचा ही नहीं कि ये दिन देखना पड़ेंगे! अस्पताल का खर्च सहकर्मी उठा रहे थे।

अड़तीस दिन कोमा में रहने के बाद पापा की हालत में कुछ सुधार हुआ। शरीर में हरकत होने लगी तो डॉक्टरों को कुछ उम्मीद हुई कि शायद, अब वे कोमा से बाहर आ सकें! लेकिन जब होश आया और जब वे कुछ बोलने लायक हुए तो उन्होंने मम्मी से पूछा कि- हम कौन हैं, कहाँ हैं।

वे अपना नाम तक भूल चुके थे, उन्हें याद था तो बस एक नाम आरती। उन्होंने पूछा, आरती कहाँ है, कैसी है?

यह बात सुन कर आरती को रोना आ गया कि पापा सिर्फ और सिर्फ मुझे प्यार करते हैं! उन्हें सिर्फ और सिर्फ मेरी ही चिन्ता है! क्योंकि उसके जन्म के समय कुण्डलीकार ने उन्हें बताया था कि इसकी पति से सदा अनबन रहेगी। वे उसे इस योग्य बनाना चाहते थे कि वह आत्मनिर्भर हो जाय। पर वे अब खुद इस योग्य नहीं रहे थे! तो परिवार के लिए उसे उनकी जगह ले लेना चाहिए।

तभी उसने एक भीष्म प्रतिज्ञा की थी कि अपने परिवार का सहारा बनूँगी, न कि प्रेम-प्यार के चक्कर में पड़ विवाह करूँगी! लेकिन यह सब क्या हो गया। किस ईश्वर ने उसकी मति हर ली और वह आलम के चक्कर में पड़ गई। ओह!

पापा की याददाश्त पूरी तरह जा चुकी थी। डॉक्टरों ने कुछ और टेस्ट कराने के बाद यही बताया कि याददाश्त वापस लाना सम्भव नहीं है। इनकी याददाश्त अब धीरे-धीरे ही वापस आ सकती है। पर कब तक, कुछ कहा नहीं जा सकता। शायद, छह महीने, एक साल, पाँच साल, कभी भी या कभी नहीं।

यह एक नई तरह की समस्या सामने आ खड़ी हुई थी।

लगभग डेढ़ महीने के बाद डॉक्टरों ने घर ले जाने को कह दिया, उनका कहना था अब अस्पताल में कुछ नहीं हो सकता।

तो उन्हें नागपुर के अस्पताल से छिंदवाड़ा के जिला अस्पताल में भर्ती कर दिया गया।

मम्मी उन्हें दिन रात याद दिलाने की कोशिश करतीं, और वे कुछ याद भी करते पर कुछ याद न आता। उन्हें नए सिरे से हर बात सीखनी पड़ रही थी। जैसे दो-तीन साल के बच्चे को सिखाते हैं। पर वे जो भी थोड़ा बहुत सीखते उसे कुछ ही देर बाद भूल जाते।

वे जब सवा साल के थे तभी उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया था, और उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। यों वे अपने दादा-दादी के पास पले बढ़े। इस बीच उनके सात सौतेले भाई-बहन हुए। पर उन्होंने कभी अपने भाई बहनों को सौतेला समझ अंतर नहीं किया। आरती ने बचपन से ही देखा, कि- उसके चाचा और बुआ लोग उसी घर में आकर रहे और पापा ने उन्हें जी जान से पढ़ाया। अपने बच्चों और सौतेले भाई बहनों में कभी भेद न किया। किन्तु जब पापा का एक्सीडेंट हुआ तो वही चाचा लोग मेहमानों की तरह आए, मिल कर चले गए, जाते जाते मम्मी को कह गए कि कुछ जरूरत हो तो बताना। पर लौट कर किसी ने कोई सुध नहीं ली। इलाज का जुगाड़ कैसे हो रहा है, बच्चे कैसे पढ़ रहे हैं, खाना-खर्चा कैसे चल रहा है, किसी ने नहीं पूछा। भला हो नानी का जो साथ रहीं। तब एक बात पता चली कि जब तक सुख सुविधाएँ हैं, जब तक पैसे हैं, तब तक रिश्तेदार हैं; और जब अपने पर मुसीबत आती है तो वही लोग साथ छोड़ जाते हैं, जो अपने कहलाते हैं।

पापा अस्पताल से छुट्टी पाकर घर आ गए थे, लेकिन उनका और पूरे परिवार का जीवन अब पूरी तरह बदल चुका था। वे चलने फिरने तो लगे थे, लेकिन उनके साथ एक व्यक्ति को हमेशा रहना पड़ता। आरती से छोटा भाई ग्यारह साल का था, पर उस पर बड़ी जिम्मेदारी आ गई थी। पापा घर से बाहर निलकते और अपना घर भूल जाते। अपने घर के सामने खड़े रहकर भी अपना घर न पहचान पाते। कोई दूसरी राह पकड़ लेते। कहीं और निकल जाते। तब वे सभी भाई बहन अलग अलग दिशाओं में जाकर उन्हें ढूँढ़ कर लाते। जैसे, किसी पशुपालक की गाय-भैंस खो जाए तो पूरा परिवार खोज में जुट जाता है।

उनकी मेडिकल लीव्ह भी खत्म हो गई। पर वे ऑफिस कैसे जाते? उनके लिए तो घर के दरवाजे तक भी जाना दूभर था। लेकिन ऑफिस वालों ने बहुत मदद की। उन्होंने कहा कि- रोज आने की जरूरत नहीं। दो-तीन दिन में एक बार ला कर हाजिरी लगवा दिया करो...। यों नौकरी छूटने से बच गई थी।

छठवीं कक्षा का ग्यारह साल का बच्चा अपने पिता को हाथ पकड़ कर हर दूसरे-तीसरे दिन ऑफिस ले जाता, ऑफिस में एक-दो घंटे रुका कर फिर उन्हें वापस ले आता।

उनकी ऐसी दयनीय दशा देख आरती की आँखें सदा ही डबडबाई रहतीं।

भाई का सारा खेलकूद बंद हो गया, समय ही नहीं मिलता उसे। जबकि इसके पहले वह दिन-दिन भर क्रिकेट सीखता था। पापा उसे गावस्कर बनाना चाहते थे। पर वही भाई अब उन्हें ऑफिस ले जाने, लाने के लिए हो गया था। ऑफिस ले जाने के लिए रिक्शा करना पड़ता। यह एक अलहदा खर्चा बढ़ गया था। ऑफिस में काम न कर पाने के कारण उन्हें तनख्वाह भी पूरी न मिलती। यों घर की आय कम हो गई और खर्च अधिक।

भाई जिसका नाम पिता ने मधुसूदन आनंद रखा था। अपनी पढ़ाई पर ध्यान न दे पाता, आए दिन उसका स्कूल छूट जाता। पढ़ाई न कर पाने से, खेल कूद में समय न दे पाने से भाई चिडचिड़ा हो गया। उसका मन पढ़ने में नहीं लगता। वह स्कूल का काम पूरा न कर पाता, और स्कूल जाने से बचने का प्रयास करता। वह आनंद से वेदना में बदल गया जिसने बाद के दिनों में अपनी गृहस्थी बस जाने पूरे परिवार से नाता तोड़ लिया। तय कर लिया कि अब वह कोई जिम्मेदारी वहन नहीं करेगा। माँ-बाप, भाई-बहन किसी की नहीं। बचपन से ही पिस जो चुका था। विद्रोह तो करना ही था, एक दिन!

घर का माहौल जो पहले एक अधिकारी के घर जैसा सुसज्जित, सभ्य, शांत, व्यवस्थित होता था, सब गड़बड़ा गया। पापा के साथ एक सदस्य को रहना पड़ता था। पापा पूरी तरह से चिड़चिड़े स्वभाव के हो गए। वे दिन भर अपने सवालों का पिटारा लिए घूमते, जो सामने दीखता शुरू हो जाते। सवालों के जवाब न पा कर चिल्लाने लगते, गुस्सा होते।

यों सवाल कोई कठिन न होते पर जवाब देने वाला कितनी बार जवाब दे। पापा तो पूछते फिर भूल जाते, कुछ देर बाद फिर वही बात पूछते। गलती उनकी भी नहीं थी, वे सब कुछ याद करना चाहते थे।

पापा चिड़चिड़ाते तो मम्मी भी चिड़चिड़ातीं। पापा गुस्सा होते तो मम्मी का बड़बड़ाना शुरू हो जाता, वे रोने लगतीं। कभी किस्मत को, कभी पापा को, कभी हालात को।

मम्मी का भजन मंडली में जाना, गाना, बजाना, सब बंद हो गया। पापा की कविताएँ, रामायण पाठ बंद हो गए। हम बच्चों की पढ़ाई भी बंद सी हो गई। घर का माहौल अजीब हो गया। कोई किसी का सामना न करना चाहता।

पर समय किस परिस्थिति में रुका है, तब भी नहीं रुका। समय अपनी रफ्तार में चलता रहा घर के हालात बिगड़े तो फिर सुधरे ही नहीं।

लेकिन आरती की कविता चलती रही। पर क्या लिखे, कैसे, यही न सूझता! जब जो मन में आता लिख लेती। उसे हमेशा लगता कि अगर पापा ठीक होते तो शायद कुछ सीखने-समझने को मिलता। घर पर अच्छा माहौल न मिलने से उसने किसी को बताना ही छोड़ दिया कि मैं कविता लिख रही हूँ। पर उसके कुछ अंतरंग मित्र तो जानते थे कि वह कविताएँ लिखती रहती है।

पढ़ने में वह ठीक थी इसलिए स्कूल के सभी शिक्षकों में उसकी छवि अच्छी थी। स्कूल का कोई भी कार्यक्रम हो उसका नाम अवश्य आता। गीत, नाटक, निबन्ध या जो भी प्रतियोगिता होती उसे अवश्य लिया जाता। और वह भी हरेक एक्टिविटीज में खुद को आजमाने का प्रयास करती रहती।

पर घर के वातावरण की वजह से, वे सब भाई बहन जो होशियार बच्चे कहलाते थे, अब सामान्य बुद्धि के हो गए थे।

यूँ ही चलते-चलते दसवीं कक्षा आ गई। उन्हीं दिनों पापा का तबादला हो गया। मम्मी चाहती थीं कि तबादला न हो या किसी तरह तबादला रोका जा सके। क्योंकि पापा की हालत ठीक नहीं थी। याददाश्त वापस नहीं आयी, ऐसे में नई जगह पर जाकर कैसे क्या करेंगे! यहाँ सब अच्छे से जानते पहचानते हैं। यहाँ हाजिरी लग जाती है, ऑफिस जाकर पापा एक दो घण्टे में वापस आ जाते। कोई शिकायत नहीं करता, लोगों को सिम्पैथी थी। पर क्या नई जगह ऐसा सहयोग मिलेगा? मन में कई प्रश्न घुमड़ते...। कहीं ऐसा न हो कि वहाँ कोई शिकायत कर दे और पापा को नौकरी से निकाल दिया जाए...।

ऐसी ही चिंताओं के कारण मम्मी एक दो बार पापा को लेकर जबलपुर गईं कि किसी तरह बड़े अधिकारियों से बात करके ट्रान्सफर रुकवाया जा सके।

पर ट्रान्सफर रुकवाने के लिए जबलपुर जाना भी कठिन काम था। पापा तो अकेले घर से बाहर भी न जा पाते। भाई जो अब बारह-तेरह साल का था, पापा को लेकर जबलपुर गया, एक दो बार मम्मी भी गईं। रोजी रोटी ही खींचतान कर चल रही थी। उस पर यह एक अतिरिक्त खर्च था घर पर। साथ ही पापा के साथ जब मम्मी जातीं तो हम बच्चे अकेले हो जाते। जाने कितने तरह की चिंताएँ, कितने ही डर, हर आहट पर अनिष्ट की आशंका। और जब भाई जाता तो अलग तरह का डर कि क्या वो पापा को सँभाल सकेगा, कैसे जाएगा, क्या बात करेगा।

लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद ट्रान्सफर नहीं रुका और वे सब मंडला जिले के एक छोटे से गाँव में आ गए। मुख्य नहर से फूटे तीन बम्बों के बाद नहर पर लगे फाटक के कारण वह स्थान हेड कहलाता। यहीं मेठ, चैकीदार, टाइमकीपर, ओवरसियर आदि के लिए जर्जर हालत में तीन-चार क्वार्टर। पापा को इसी पर पोस्टिंग मिली। नया गाँव, नई जगह, नए लोग! जो भी था, अच्छा नहीं लगा। स्कूल में एडमीशन हुए, वह सब भाई बहनों का एडमीशन कराती फिरती। सब काम जो पापा को करने थे वे उसी के हिस्से आए, भाई के हिस्से पापा को दफ्तर लेकर आना-जाना।

पर ईश्वर ने एक मेहरबानी बनाए रखी कि यहाँ भी पापा के ऑफिस के लोग मददगार हुए। तहसील कार्यालय जहाँ पापा का ऑफिस था, यहाँ से पच्चीस किलोमीटर दूर था। पर उन्हें दो-चार दिन में एक बार ऑफिस आने की छूट भी मिली। अब मुख्य परेशानी यह कि पापा की हालत ठीक नहीं, भाई की उम्र तेरह-चैदह साल और वह पंद्रह-सोलह साल की, उसके बाद दो-दो साल के अंतर पर दो बहनें। उस पर मम्मी खूब सुंदर! गिद्ध नजरों से बचना-बचाना, उफ! बड़े कठिन दिन थे। समझ न आता कौन किसकी चैकीदारी करे।

मम्मी हम बहनों को कहीं भी आने-जाने से रोकतीं, पर स्कूल जाना, ट्यूशन जाना, सब कुछ रुकता भी कैसे। पर मानसिक तनाव बहुत रहता। इन दिनों कविता से अटूट रिश्ता बना। और जब कविता से रिश्ता बना तो बाह्य जगत से टूटता गया। परिवार में हँसी ठिठोली, बातें, परेशानियाँ साझा करना बंद सा हो गया।

उन दिनों ऐसे ऐसे लोग देखे जो अपने थे, या भरोसेमंद थे। विश्वास था जिन पर, वो सब बुरे समय का फायदा उठाने तैयार दिखे। आए दिन कोई परिचित घर आ जाता, इधर उधर की गप हाँकता, बुरी-बुरी नजरों से घूरता और टलने का नाम न लेता। सारे अंकल, सब भाई, सारे दोस्त-सखा सब को देखा और एक ही बात समझी कि पुरुष प्रजाति का जीव स्त्री को शरीर से अधिक कुछ नहीं समझता।

घर से बाहर कितना ही कुछ सह कर लौटती पर जैसे ही घर में घुसती, मुस्कराते हुए ही आती। ये बहुत ही कठिन होता।

यों जैसे-तैसे करके उसने बारहवीं विज्ञान विषय में पास की। लेकिन कक्षा की चैदह लड़कियों में सिर्फ चार लड़कियाँ ही पास हुई थीं, तो उसे स्कूल, शिक्षकों और गाँव ने सब सहपाठियों में होशियार माना और खूब चर्चा हुई। अब उसे पीएमटी देनी थी, जिससे डॉक्टर बन सके। इसके लिए एक दो परिचितों को कहा भी कि जबलपुर से पीएमटी का फाॅर्म ला दें, पर कोई लाया नहीं, लाता भी क्यों? बिना स्वार्थ कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता। सो, वह पीएमटी नहीं दे सकी! और डॉक्टर बनने का सपना यों धराशायी हो गया।

गाँव में बारहवीं से अधिक शिक्षा की सुविधा नहीं थी। इसलिए शहर की तरफ जाना आवश्यक हो गया था। एक रिश्तेदार की मदद से जबलपुर के कॉलेज में पढ़ने के सम्बंध में जानकारी प्राप्त की गई और बीएससी के प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। जबलपुर के एक हॉस्पिटल में रहने की व्यवस्था हुई। यह सब खुद ही करना पड़ रहा था।

मगर बचपन से देखा और पापा का दिखलाया सपना ऐसे कैसे टूटता सो एक उम्मीद कहीं जिन्दा थी। सोचा डॉक्टर न सही, कुछ मिलता जुलता ही कर लूँ। यही सोच कर उसने बीएससी में जिन विषयों को चुना वो पैथोलाॅजी से सम्बंधित थे, इन्हें पढ़ कर पैथोलोजिस्ट बन जाऊँगी ऐसा विचार था। इस तीव्र आकांक्षा में उसने यह भी नहीं सोचा कि इन विषयों की पढ़ाई कठिन है और इनकी भाषा का माध्यम अँग्रेजी है जो मेरे लिए कठिन है। इन विषयों को पढ़ने के लिए ट्यूशन की आवश्यकता थी, किन्तु उसने ट्यूशन लेने का कोई विचार नहीं किया। उसे पता था कि मम्मी मुझे होस्टल में रख कर पढ़ाने का खर्च उठा रहीं हैं, जो पहले ही क्षमता से अधिक है, अब ट्यूशन फीस की कैसे कहूँ।

हॉस्पिटल की दिनचर्या ये थी कि सुबह आठ बजे कॉलेज जाओ, कॉलेज और हॉस्पिटल की दूरी लगभग एक-डेढ़ किलोमीटर थी। पैदल ही जाती। फिर एक से डेढ़ बजे तक कॉलेज में कक्षाएँ चलतीं। उसके बाद दो बजे से मेडिकल कॉलेज में प्रेक्टिकल होते जो उसके कॉलेज और हॉस्पिटल से पाँच-छह किलोमीटर दूर था। और इसी बीच उसे हॉस्पिटल आकर भोजन करना होता। जल्दी-जल्दी खाना खाकर फिर आधा किलोमीटर चल कर टेम्पो स्टेण्ड आना, वहाँ से टेम्पो पकड़ कर मेडिकल कॉलेज जाना। हॉस्पिटल से मेडिकल कॉलेज का किराया उन दिनों तीन रुपये लगता था। यानी लौटाबाट छह रुपए। कभी-कभी पैसे बचाने के लिए पैदल ही चली जाती। आधा प्रेक्टिकल छूटने पर पहुँचती, कुछ समझ न आता। उस पर मृत मानव शरीर पर प्रेक्टिकल होते, क्लोरोफाॅर्म की बू से दिमाग सुन्न हो जाता। मुर्दों को छूना, चक्कर आ जाते। रो-धोकर प्रेक्टिकल निबटा कर कभी टेम्पो कभी पैदल ही शाम ढलने तक होस्टल लौट आना। आने के बाद अक्सर खाने में रुचि न पड़ती। मुर्दे आँखों में झूलते रहते। उस पर हॉस्पिटल का बेस्वाद खाना। यूँ ही साल कट गया, और वह बीएससी प्रथम वर्ष में फेल हो गई।

तब नए सत्र में स्वाध्यायी छात्रा के रूप में बीएससी करने की ठानी, सामान्य विषयों से। कॉलेज जिससे फाॅर्म भरा था, गाँव से पच्चीस किलोमीटर दूर था। कुल मिलाकर यही हुआ कि वह फिर से फेल हो गई!

इसी बीच पापा का ट्रान्सफर फिर हो गया। अब फिर मम्मी को लगा कि पापा की इस हालत के चलते बड़े शहर में रहना कठिन होगा। फिर ट्रान्सफर रोकने के प्रयास किए गए। तब सब ने समझाया कि बच्चे बड़े हो रहे हैं, बड़े शहर में अच्छी शिक्षा मिलेगी तो अच्छा होगा। इस तरह वे लोग गाँव से जबलपुर शहर में आ गए। यों दो साल और बीत गए। उसकी पढाई लगभग रुकी हुई थी। जबलपुर आकर लगा कि अब विज्ञान पढ़ना उसके वश का नहीं है। बहुत कुछ सोच समझ कर उसने डिप्लोमा इन टीचिंग में प्रवेश ले लिया। ऑटो से रोज कॉलेज जाती, पास के स्कूल में प्रेक्टिकल होते। सब बढ़िया चलने लगा। पर उन्हीं दिनों उसकी तबीयत खराब हो गई। वह धीरे-धीरे बहुत कमजोर पड़ गई। उसे आए दिन बुखार और सर्दी-खाँसी हो जाती। जिसका इलाज पास के झोलाछाप डॉक्टर से लेना पड़ता। पर एक बार बुखार और खाँसी ने ऐसा जोर पकड़ा कि उस डॉक्टर का इलाज कारगर न हुआ। तब किसी अच्छे अस्पताल में इलाज कराने के बारे में सोचा गया और उसे जबलपुर के एक अच्छे अस्पताल में दिखाया गया। वहाँ उसकी कुछ जाँचें हुईं! जिनमें खून की जाँच और एक्सरे शामिल था। दूसरे दिन जब वह खुद रिपोर्ट लेने गई और उसने डॉक्टर से अपनी बीमारी पूछी, तो डॉक्टर ने बताया कि- तुम्हें टीबी है जो अपने दूसरे स्टेज पर है। लम्बा इलाज चलेगा। पर घबराने की बात नहीं, ठीक हो जाओगी।

दिन में पाँच बार दवाइयाँ खाने का सिलसिला चल पड़ा जो छह-आठ महीनों तक चलता रहा।

वे दिन बड़े कष्टदायी थे।

बुखार में तपना, जोर की खाँसी, भूख न लगना, दवाइयों से पेट और सीने में जलन, उफ्फ! बिस्तर पर पड़े-पड़े वह सबके चेहरे देखती जिन पर उसके लिए खासा चिंता होती। घर में सब परेशान रहते। पर उसके अलावा यह तो कोई न जानता कि उसे टीबी है! किसी को बताया कहाँ! मम्मी को भी नहीं, उनसे कोई पूछता कि- क्या हुआ? तो वे कहतीं- बुखार बिगड़ गया है।

यों लगभग दो महीने कॉलेज नहीं जा सकी। शक्लोसूरत ही बिगड़ गई। चेहरा काला पड़कर बुरी तरह मुरझा गया। शरीर में अतिशय कमजोरी। फिर भी थोड़ा साहस बटोर कॉलेज जाना शुरू कर दिया। प्रथम वर्ष की परीक्षा हुई, तो वह प्रथम श्रेणी में पास हो गई। इससे मन में बहुत आशा जाग गई। वह एकदम से प्रसन्न हो गई। जैसे, पिछली सारी क्षतिपूर्ति हो गई।

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