Kimbhuna - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

किंबहुना - 12

12

सुबह जल्दी उठ कर, नौ बजे तक वे लोग बलौदा बाजार पहुँच गए। भरत ने उन्हें बस में बिठा दिया था। वह भी जल्द उठ गया था, क्योंकि उसे भी अपनी ड्यूटी पर भिलाई पहुँचना था। बच्चों की तो परीक्षा निबट गई थीं सो छुट्टियाँ चल रही थीं। पर आरती को तो देर से ही सही ऑफिस जाना था और फिर फील्ड पर भी। सो, बच्चों को घर छोड़ स्कूटी उठा वह रवान पहुँच गई। रात में नींद पूरी नहीं हुई थी। दिन भर उबासियाँ आती रहीं। सिर दर्द से फटता रहा। पर वह बहुत मजबूत इरादे वाली औरत थी। थक हार कर बैठना न जानती थी। नेचर ने उसकी हेल्प भी की थी कि उसकी कदकाठी किसी फौजी से कम न थी। और रेगिस्तानी जहाज की तरह एक बार खाना-पानी ले ले, तो कहो, दो दिन तक चलाए। सो, शाम को घर लौट कर ही बना कर, बच्चों को खिला कर तब उसने खाना खाया। बच्चे भी वैसे ही मजबूत होते जा रहे थे। रुखसाना ने भी दिन में सिर्फ खिचड़ी बनाई और भाई-बहन ने उसी से अपना काम चला लिया।

आरती बच्चों के साथ रात को सुकून से लेटी तो आलम के भूत ने फिर घेर लिया उसे।

आलम बदला नहीं था। उसकी सब हरकतें वैसी ही रहीं। न उसने कोई काम शुरू किया न ही उसका स्वभाव बदला। उसे रात दिन यही चिंता रहती कि बेटी कैसे पलेगी, कैसे बड़ी होगी। लगता कि बेटी जो दुख पाएगी, जिन अभावों में पलेगी उस सबकी जिम्मेदार मैं रहूँगी। मैं इसे इस दुनिया में लाई हूँ तो इसके हर सुख हर जरूरत का खयाल रखना मेरा काम है। पर मैं करूँ भी क्या मेरे हाथ में कुछ नहीं है।

बहुत समझाने पर आलम ने कहा कि- मैं बीमा एजेंट बन जाता हूँ। इससे तुम्हारी जो इतनी जान पहचान है उसका फायदा होगा, मुझे बहुत सी बीमा पाॅलिसी मिलेंगी जिससे खूब आमदनी होगी। पर ऐजेंसी लेकर काम कुछ नहीं किया। बस वही घूमना-फिरना, लड़ना, गाली, मारपीट।

यूँ ही करते-करते लगभग एक साल बीत गया। घर का खर्च चलना कठिन था। ऐसे दिन भी आए जब पानी में उबाला हुआ चावल भी भर पेट न मिला। बेटी बड़ी होने लगी, उसकी परवरिश भी ठीक से न हो पाती। इधर-उधर के रिश्तेदारों दोस्तों से पैसा माँगने का काम आरती के हिस्से ही आता। दुकान से उधार में सामान लाना हो, मकान मालिक से किराया न दे पाने का निवेदन, सब उसके हिस्से आता। रुकू के कारण अब वह खासे दबाव में थी।

बहुत समझाने और घर के बुरे हाल को देखते हुए आलम ने नौकरी करने का मन बना लिया। शिक्षा की कमी से कुछ अच्छा काम मिल ही नहीं रहा था, तब उसके ही समाज के एक व्यापारी की दुकान में काम मिला। जहाँ उसे मार्केट से पैसे की वसूली करना, बिल लाना, चेक देने-लेने जाना पड़ता। और पगार सिर्फ 1800 रुपए महीना। ये पैसे बहुत कम थे, इतने में खर्च चलना संभव नहीं था। वे लोग जिस मकान में किराए पर रहे थे, उसका किराया ही 1000 रुपए महीना था। बचे पैसों में खर्च चलना बहुत कठिन था। पर चलो, उसने नौकरी की तो सही यही बहुत था। आरती को इसी में संतोष हो गया। आलम की नौकरी चलने लगी। वो सुबह 9 बजे सो कर उठता, नहा-धोकर नाश्ता करता और काम पर चल देता। काम तो उसका 8 बजे तक खत्म हो जाता पर वो घूमते घामते रात 10 बजे या उसके भी बाद घर आता।

आलम से जब भी उस दूसरी औरत की बात की आरती ने, उसने कहा, ये लांछन है मुझ पर। ऐसा कुछ नहीं, मेरे दोस्त की बीबी है वो, मेरी भाभी है। यहाँ मेरे इतने दोस्त हैं, वे घर भी आते हैं और मैं तुम्हें भी उनके यहाँ ले जाता हूँ, क्या उनमें से किसी एक के भी साथ तुम्हारे नाजायज सम्बंध हैं?

यों वह साफ मुकर जाता, पर बात सच थी। बहुत टोकने और मना करने पर उसने कहा कि- ठीक है, मैं उसके घर नहीं जाया करूँगा। पता नहीं क्यों, फिर आरती ने कभी जानना नहीं चाहा कि वो उसके घर जाता है या नहीं! शायद, रिश्ते में प्रेम न होना, इसका बड़ा कारण हो। वे शारीरिक रूप से कभी कभार मिलते जरूर, बच्ची भी हो गई, पर आत्मा न मिली। दिल में कभी कसक न उठी। संवेदनाएँ एक क्षण को भी कभी झंकृत न हुईं।

अभी काम करते दो महीने ही हुए थे कि आलम को ये काम अच्छा नहीं लगा। अब वो कहता कि- मैं काम छोड़ दूँगा, बहुत काम कराते हैं, पैसा कम देते हैं, उस पर चिल्लाते बहुत हैं। तब आरती समझाती कि- काम करना तो जरूरी है। खाएँगे क्या, गुजारा कैसे होगा! कर्ज पहले से ही इतना है कि सिर नहीं उठाया जाता... तुम करो, धीरे-धीरे पैसे भी बढ़ जाएँगे।

पर उसे हमेशा डर लगा रहता कि कहीं आलम नौकरी छोड़ न दे। बात पैसों की नहीं, फायदा यह कि एक तो वो इसमें व्यस्त रहता और दूसरे घर से बाहर रहता सो, घर में कुछ हद तक शांति बनी रहती। पर उसके चाहने से कुछ न हुआ। दो तीन महीनों में ही आलम ने नौकरी छोड़ दी। आरती का तनाव पहले से कहीं अधिक बढ़ गया। उसे बहुत समझाने पर उसने एक दूसरी जगह नौकरी ढूँढ़़ ली। दिन तंगहाली में गुजरते रहे।

इतनी कम कमाई में खर्च चलना कठिन हो रहा था। आलम और उसकी माँ के बीच का झगड़ा भी लगातार चलता रहता। पर एक चीज हुई कि आलम ने माँ पर हाथ उठाना कम कर दिया। वो यों कि आरती ऐसे मौके आने से बचाने का पूरा प्रयास करती रहती। माँ और आलम दोनों को सँभालने की कोशिश वह हरदम करती रहती। पर कभी-कभी ऐसी नौबत आ ही जाती, जब माँ को गालियाँ और मार खाना पड़ती। इस फसाद में उसने आलम की गालियाँ तो खूब खाईं पर वो उससे इतना डरती रही कि कभी उसकी किसी बात का विरोध किया ही नहीं, इसलिए मार खाने की नौबत नहीं आई।

खैर। समय और बीता, आलम की माँ ने अपनी बेटी को लेकर अपने छोटे बेटे के पास जाने की इच्छा जाहिर की। आरती को भी लगा कि अच्छा है, घर में कलह कम होगी। माँ न रहेगी तो आलम का आतंक भी कम तो जाएगा। दो लोगों का खर्च भी बचेगा! पर छोटे बेटे ने माँ को रखने से मना कर दिया। कहा कि- मेरी आमदनी इतनी नहीं है कि मैं दो और लोगों का खर्च उठा सकूँ। यहाँ बड़े शहर में घर बहुत छोटे होते हैं, इसलिए घर में जगह नहीं है। दो चार दिन मेहमान की तरह रख लूँगा पर हमेशा या लम्बे समय के लिए नहीं रख सकता।

इतने पर भी आलम की माँ अपनी बेटी को लेकर अपने छोटे बेटे के पास चली गई। वो उन्हें रखने तैयार नहीं था, फिर भी आरती को भी लगा कि कुछ दिन रह आएँ तो घर में कुछ शांति हो, साथ ही उन्हें भी कुछ दिन इस मारपीट से छुटकारा मिले।

उनके जाने के बाद आलम कुछ ठीकठाक रहा। हाँ, आरती उसकी हर बात मानती, इस डर से कि वो कहीं हाथ न उठाने लगे। उसे पता था कि एक बार उसका हाथ उठ गया तो फिर रोज उठेगा और उसे आत्महत्या करना होगी। बेटी को वह अनाथ नहीं करना चाहती थी। गरज यह कि अब उसी की खातिर जीना चाहती थी। जब भी वह कुछ कहती या किसी सही बात पर तर्क करने की कोशिश करती, कभी सही गलत बताना चाहती तो वो नाराज हो जाता। तो उसने चुप रहना अपनी नियति मान लिया। पर थी तो इंसान ही। समझदार और पढ़ी-लिखी। सही-गलत समझती थी। पर आलम कभी उसकी बात नहीं सुनता।

आलम की नौकरी ठीक ही चल रही थी। वो सुबह टिफिन लेकर जाता और रात नौ दस बजे तक लौटता। रात बारह-एक बजे तक टीवी देख पेपर पढ़ कर सो जाता। सब ठीक-ठीक सा होने लगा अब। समस्या बस एक ही रह गई कि आलम की पेमेंट बहुत कम थी, जिससे घर के खर्च नहीं चल पाते थे और कर्ज बदस्तूर बना हुआ था। कभी-कभी अटके पर पड़ोसियों से ही-ही, खी-खी कर वह सौ-पचास रुपए माँगती और आलम की गाली-गलौज सुनते जैसे-तैसे पटा पाती।

रुकू लगभग एक वर्ष की हो गई थी।

वह आलम को बहुत समझाती कि- मैं भी नौकरी कर लेती हूँ। पर वो मानता नहीं था। बहुत समझाने पर उसने बे-मन से हामी भरी। मम्मी का घर पास ही था। आरती का विचार था कि बेटी को मम्मी के पास छोड़ कर मैं काम पर जा सकती हूँ। बहुत ढूँढ़़ने के बाद एक मोबाइल कंपनी में काम मिला, जो कि कम्पनी के मोबाइल बेचने का काम था। अब उसे घर-घर जाकर मोबाइल बेचने थे। पेमेंट मोबाइल बिकने के कमीशन पर आधारित था। जिसके लिए उसे दिन भर धूप में घूमना पड़ता। महीने भर घूम-घूम कर परेशान हो गई पर मोबाइल नहीं बिके और उसे कुछ भी पेमेंट नहीं मिला। दो महीने यूँ ही निकल गए, पैदल पदते हुए। पैसा कुछ मिला नहीं।

दो महीने तक धूप में घूम कर जब कुछ न मिला तो उसे वह नौकरी छोड़ना पड़ी। नौकरी छोड़ कर यूँ लगा जैसे वह हार गई। नौकरी के दम पर वह जिस घर के हालात सुधारने की बात करती थी, वे सारी बातें धरी रह गईं। तब वह फिर घर पर रहने लगी। घर में रह कर बीमा आदि के काम करने की कोशिश करती, पर बदकिस्मती से वो भी न होते। बीमा पाॅलिसी बेचने के लिए उसे बहुत लोगों के पास जाना पड़ता। आलम सुबह अपने काम पर निकल जाता, उसे दो-चार लोगों के नाम-पते दे जाता कि इनसे मिल कर बीमा की बात कर लेना। इसके लिए उसे पैदल चल कर दूर-दूर तक जाना पड़ता। समस्या और बढ़ती जा रही थी। छोटी बच्ची को गोद में लेकर पैदल घूमना पड़ता। पाॅलिसी तो कोई न लेता हाँ अनुभव बहुतों ने दिए। जब वह लोगों से मिलती तो कोई सहानुभूति दिखाता, कोई आलम को भला बुरा भी कह देता, कोई खा जाने वाली नजरों से घूरता।

आरती आलम को जब ये सब बताती तो वो उल्टा उसी पर गुस्सा हो जाता।

और अगर वह कहीं जाने को मना करती तो चिल्लाता कि- पाॅलिसी नहीं होगी तो पैसा कैसे मिलेगा।

यूँ ही करते कुछ दिन और गुजरे।

पाॅलिसी के लिए घूमते हुए एक परिचित जिनका एक टेंट हाउस था। वह उस दुकान पर जाती कि वो पाॅलिसी ले लें। ये वो परिचित था जो उसे बहुत दिनों से घुमा रहा था। आरती हर बार जाती और वह हर बार टाल देता। पाॅलिसी लेने से मना नहीं करता पर पाॅलिसी लेता भी नहीं, हर बार

इधर-उधर की बातें करके बाद में आने के लिए कह देता। यों वह उसके पास कई बार जा चुकी थी। इस व्यक्ति की बातें उसे बिलकुल पसन्द नहीं थीं पर पाॅलिसी के लालच में चली जाती। एक उम्मीद थी कि शायद ये पाॅलिसी लेगा।

एक दिन की बात है जब उस टेंट हाउस मालिक ने कहा, कि- आप इतना घूमती हो, क्या आप कोई नौकरी करोगी?

आरती को डर लगा कि ये आदमी कहीं उसे फँसा न दे! फिर भी उसने पूछा, कैसी नौकरी? तो उसने बताया कि- एक संस्था है जिसके लिए फील्ड वर्कर की जरूरत है। उसमें भी घूम-घूम कर काम करना पड़ेगा और  आप को तो घूमना ही पड़ता है।

आरती ने और जानकारी माँगी, उसने बताया कि- उसके घर में एक मैडम किराए पर रहती हैं, उनकी संस्था में एक फील्ड वर्कर की जरूरत है, आप करो तो मैं बात करूँ!

आरती बोली, ठीक है बात करके बताएँ।

तो उसने उसे संस्था के कार्यालय का पता दे दिया कि आप खुद ही जाकर बात कर लो।

और उसने घर आकर आलम को ये बात बताई, तो वो इस बात के लिए तैयार हो गया कि देखने में क्या हर्ज है। वह आलम के साथ ही दूसरे दिन उस पते पर जानकारी लेने गई। वहाँ अपना आवेदन दिया। संस्था का ऑफिस देख कर उसे अच्छा लगा, वो एक अच्छा ऑफिस था जहाँ पर कुछ महिलाएँ भी दिखाई दीं जिससे और तसल्ली हुई। आरती ने अपना आवेदन दे दिया था और एक दफ्तरनुमा हाॅल में बैठी थी। तब उन्होंने उसे अपने केबिन में बुलवा कर कहा कि- आपको बाद में इंटरव्यू के लिए बुलाएँगे।

लगभग 15 दिनों तक कोई जवाब नहीं आया। तो उसे लगा पता नहीं वहाँ नौकरी मिलेगी या नही! मगर उसके बाद एक दिन वहाँ से फोन आया! तो वह आलम के साथ तुरंत वहाँ पहुँच गई। वहाँ की अधिकारी जो एक महिला थीं उन्होंने संस्था की जानकारी उसे दी और बताया कि- यह काम सिर्फ एक वर्ष के अनुबंध पर मिलेगा, अच्छा काम होने पर एक वर्ष और बढ़ाया जा सकता है। कह कर उन्होंने इंटरव्यू की तारीख बता दी।

लगभग एक सप्ताह बाद इंटरव्यू हुआ। इंटरव्यू में कुछ लड़कियाँ और कुछ महिलाएँ थीं। कुल 12 लोग आए थे, उनमें से किसी एक को चुनना था। उसका इंटरव्यू सबसे अच्छा रहा। कुछ दिन बाद उसके पास खबर आई कि उसे चुन लिया गया है। यहाँ उसे 3000 हजार रुपए पगार मिलना थी और एक स्कूटर और पेट्रोल का खर्च। वह खुशी से भर गई कि चलो, अब सब ठीक हो जाएगा। घर के सभी काम करके सुबह नौ बजे घर से निकलती, बेटी को मम्मी के घर छोड़ कर ऑफिस जाती और शाम को 5 बजे मम्मी के घर जाती, वहाँ से बेटी को लेकर अपने घर आती।

घर आकर सारा काम करती। सास-ननद दोनों वापस आ गई थीं। तो काम और बढ़ गया था। मगर आलम का रवैया वही था। वह कभी 11-12 बजे से पहले न आता। जब आरती को नींद चढ़ी होती, उसे खाना देना पड़ता। फिर वह एक बजे तक अखबार पढ़ता और टीवी देखता। देर तक लाइट जलती रहती। आरती की बार-बार नींद टूटती। फिर भी सुबह जल्दी उठ कर झाड़ू पानी, रोटी बर्तन सब करना पड़ता। और वह सोया ही रहता तब तक वह घर का काम-काज निबटा कर काम पर निकल जाती। दिन में जरा भी आराम नहीं मिलता, शाम को वही क्रम। यही करते एक साल गुजर गया। मगर उसके प्रदर्शन को देखते अनुबंध एक साल के लिए और बढ़ गया। पगार भी अब साढ़े तीन हजार हो गई। मगर एक और साल गुजर नहीं पाया तब तक ऑफिस के माध्यम से ही पता चला कि सीमेंट फाउंडेशन में महिला कार्यक्रम अधिकारी की पोस्ट निकली है। उसने अपना रिज्यूम डाल दिया। और भगवान ने सुन ली। आलम ने बहुत पैर पीटे कि जबलपुर छोड़ जयपुर नहीं जाए! मगर वह बेटी और मम्मी को लेकर चली गई। अब तक भाई की शादी हो गई थी और मम्मी का घर सँभालने उनकी बहू आ गई थी। यह तो जयपुर जाकर ही पता चला कि वह फिर गर्भवती है। बाप-रे! नई नौकरी और ये मुसीबत! पर मम्मी ने बहुत सहारा दिया। साल भीतर आरती ने जापा निबटाने के साथ ही अपने पैर भी जमा लिए।

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