PAPA WHERE WERE YOU books and stories free download online pdf in Hindi

पापा कहां थे आप

पापा कहां थे आप

 

             पतझड़ का मौसम था। पेड़ों के पीले पड़े हुए पत्ते जमीन को ढक कर मानो बिछौना सा बना रहे थे। शहर का बाहरी इलाका वीराने का सा एहसास कराता था । पेड़- पौधे अपने पत्तों के बिछोह में दुखी होकर मानो सूखने का आभास करा रहे थे । राघव और अनीता भी अपने बेटे कुणाल को बोर्डिंग स्कूल में छोड़ने देहरादून जा रहे थे । कुणाल बहुत उदास था । उसकी उम्र ही क्या थी, ग्यारह का भी पूरा नहीं हुआ था, पांचवी कक्षा की परीक्षा ही उत्तीर्ण की थी । अंग्रेजी माध्यम के नामी-गिरामी विद्यालयों में फरवरी में ही सत्रांत की परीक्षा हो जाती थी और 1 अप्रैल से नया सत्र शुरू हो जाता था । दोनों राज्य स्तरीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे, चयन के बाद राघव ने पुलिस सेवा और अनीता ने प्रशासनिक सेवा को चुना था । दोनों की शादी भी इच्छानुसार ही प्रशिक्षण के बाद हुई थी।

         कुणाल को घर पर भी मम्मी- पापा का साथ कम ही नसीब होता था , अक्सर उनकी भूमिका घर पर काम करने वाली बाई विमला और ड्राइवर अंकल हरिमोहन ही निभाते थे । किंतु फिर भी कुणाल को मम्मी- पापा के चेहरे तो देखने को नसीब होते थे । दोनों का जीवन इतना व्यस्त था कि कुणाल को समय देना संभव ही नहीं था । इसलिए उसकी देखभाल करने के लिए और घर का छोटा- मोटा काम करने के लिए विमला को रखा था। मकान के पीछे बने कमरों में से एक उसको दे रखा था । प्रायः राघव और अनीता कुणाल को समय देने के ऊपर, कई बार झगड़ा कर लेते थे । इसलिए उन्होंने दूसरी संतान भी पैदा नहीं की थी । समय ही नहीं था , अभी कुछ महीने पहले ही जब एक दिन कुणाल की तबीयत खराब हो गई थी, तो राघव बोला,- " अनु, तुम आज ऑफिस मत जाओ , कुन्नू के साथ हॉस्पिटल जाना और अच्छे से सारे चेकअप कराना, कल से ही कुछ नहीं खाया है और बुखार भी है और ज्यादा सीरियस बात हो तो मुझे फोन करना।"

        " रघु , आज जिला परिषद में साधारण सभा की मीटिंग है, कलेक्टर साहब भी रहेंगे , मेरा उपस्थित रहना बहुत जरूरी है, आज तुम ही कुन्नू के साथ चले जाओ ना, प्लीज. ..।"

        "अनु , तुम जानती हो पुलिस की नौकरी को और जब से वह रेप कांड हुआ है ना, सारा मीडिया पीछे पड़ा है, शीघ्र ही जांच पूरी नहीं हुई तो मुझे जवाब देना भारी पड़ जाएगा।"

        "तुम हमेशा यही रोना रोते हो, यह क्या तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है ?" " अनु, कैसी बात कर रही हो ? संतान की जिम्मेदारी क्या तोल- मोल कर मापी और बांटी जाती है, मेरी नौकरी की स्थितियों को तुम समझती नहीं हो क्या ?"

        " क्यों नहीं ? मैं ही समझूं ? सारा समझने का ठेका तो मेरा ही है, मैं तो यूं ही टाइम पास करने के लिए छोटी-मोटी नौकरी करती हूं...? पिछले साल से ही कह रही हूं कि किसी अच्छे से बोर्डिंग स्कूल में दाखिला करवा देते हैं, कुन्नू की अच्छी देखभाल भी हो जाएगी और तुम्हें चिंता से मुक्ति भी मिल जाएगी।"

        " मैं कहां मना कर रहा था, बस यही था कि थोड़ा और बड़ा हो जाए, कम से कम पांचवी तक तो पढ़ ले हमारे साथ....?"

         " तुम्हारे साथ.........?"

         " तुम दोबारा शुरू मत होना प्लीज। "

         आखिर में दोनों ने अपने राजकीय कर्तव्य के लिए घर से रुखसत हो गए और कुणाल को विमलाबाई और हरिमोहन अंकल के साथ ही हॉस्पिटल जाना पड़ा । यह कोई एक दिन का किस्सा नहीं था, आये दिन घर की दीवारें ऐसी बातों से खनखनाती थी और धीरे-धीरे दरकती रहती थी । विमला और हरिमोहन जिनके मूक दर्शक और कुणाल अबोध साक्षी बनता था । उसके छोटे से दिमाग में ज्यादा कुछ समझ नहीं बैठता था, लेकिन उसकी और वे बार-बार इशारा करते, तो लगता कि उनकी लड़ाई- झगड़ा का कारण वही है । वास्तव में काम का तनाव, अन्य व्यक्तिगत रिश्ते, अपनी-अपनी व्यस्तता भी मुख्य कारण होती थी, किंतु आखिर में सब सिमटकर कुणाल के ऊपर ही आ जाता था और सारी भड़ास उसको मुद्दा बनाकर उड़ेल देते थे। उसका अपरिपक्व, छोटा सा दिमाग भी, अपने आपको मम्मी- पापा का गुनहगार सा मानने लगा था। इसीलिए यद्यपि वह घर से दूर जाने पर आज बहुत उदास था, किंतु अंतर्मन में कोई संतोष सा था कि मम्मी- पापा का झगड़ा शांत हो जाएगा।

            कुणाल का विद्यालय देहरादून शहर के बाहर पहाड़ की तलहटी में एक नामचीन विद्यालय था, जो सभी प्रकार की रहन-सहन की सुविधाओं से युक्त था, फीस थोड़ी ज्यादा थी , लेकिन उसकी कोई चिंता नहीं थी। कुणाल के छात्रावास के कक्ष की खिड़की से पहाड़ की घाटीनुमा वादियां नजर आती थी । वह घंटों कुर्सी पर बैठा घाटी के पेड़-पौधों को निहारता रहता था। वे भी उसके जीवन की तरह इस मौसम में सूने और उदास नजर आते थे। पत्तों के बिना उन पर पक्षी भी कम ही नजर आते थे, जो मानो मानव समाज के चरित्र का आभास कराते थे, कि जब हम समृद्ध- सशक्त होते हैं तो हमारा आश्रय लेने वालों और गुणगान करने वालों की भी कमी नहीं होती है , किंतु वक्त के थपेड़ों से जब असमर्थ, असहाय बन जाते हैं तो वह गुणगान करने वाले दूर-दूर तक नजर नहीं आते हैं।

           धीरे-धीरे कुणाल का मन लगने लगा था । कुछ नए दोस्त बन गए थे । खेलते-कूदते, कुछ चुटकुले और कहानियां भी सुनाते। विमलाबाई, हरमोहन अंकल की याद आती थी, लेकिन खाना खिलाने वाली आंटी और माली अंकल के रूप में दो नए संरक्षक मिल गए थे, जो उससे बहुत ही स्नेहपूर्ण बर्ताव करते थे । पापा- मम्मी की याद भी आती थी, लेकिन ज्यादा तकलीफ नहीं देती थी। धीरे-धीरे पेड़ों पर ताजा कोंपले आने लगी थी, पेड़- पौधों के लिए प्रकृति मानो पहले से भी ज्यादा सुंदर पोशाक पहना बना रही थी । घाटी में नवजीवन का संचार हो रहा था । वादियां मनोरम दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। कुणाल को अब वादियां बड़ी मनमोहक लगने लगी थी । गोधूलि बेला में पक्षी पेड़- पौधों में बैठे कलरव करते और वह खिड़की में बैठा उनकी भाषा समझने का प्रयास करता , मानो वे भी मुस्कुरा कर उससे बात करना चाहते हो और नए खुशनुमा परिवेश की खुशी बांटना चाहते हो । यहां का मौसम सुंदर प्रकृति उसको रुचने लगी थी। दिन- महीने - साल गुजरते गए, कुणाल को इन वादियों में अपनेपन का एहसास होता। विद्यालय और छात्रावास उसको अपना घर जैसा लगता और अपना घर जैसे कोई रिश्तेदार के यहां दो- चार रोज घूमने गए हो, ऐसा लगता । अपने व्यस्त जीवन से यदि एक-दो दिन का विराम मिल जाता तो राघव और अनीता यदा-कदा वर्ष में एक- आधा बार मिलने आ जाते, जब भी उसकी छुट्टियां पड़ती उसको लाने के लिए दोनों में जद्दोजहद होती कि कौन समय निकालकर उसको लेकर आएगा । एक बार तो ड्राइवर अंकल को अकेले ही लाने भेज दिया था और कुणाल छुट्टियां शुरू होने के चार दिन बाद तक उनके आने का इंतजार करता रहा था । शायद दोनों अपने ग्रहस्थ जीवन से ऊब चुके थे । एक- दूसरे का साथ कम ही भाने लगा था । कई बार हम भटकते हुए जीवन की उस राह को पकड़ लेते हैं, जो हमसे क्या छीन लेती है इसका ज्ञान तब होता है, जब जीने का वक्त रेत की तरह हमारी मुट्ठी से फिसल जाता है । एक अर्ध विकसित बालक के दिमाग पर अपने माता-पिता का इस तरह का जीवन कितनी बदरंग तस्वीरें बनाता है, कच्चे घड़े पर कितनी भद्दी रेखाएं खिंचती चली जाती हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है ।

          कुणाल को दोनों नहीं चाहते थे, ऐसा बिल्कुल नहीं था । दोनों की आंख का तारा था, किंतु वे अपने जीवन में इस कदर उलझ गए थे कि आंख को ही नहीं संभाल सके तो तारे का ख्याल कैसे रखें? भूल से गए थे। कुणाल जब आता तो एक-दो दिन बहुत खुशनुमा माहौल में गुजरते, उसको बाजार भी घुमाने ले जाते , अच्छे-अच्छे कपड़े, जूते और अन्य चीजें खरीदवाते, लेकिन वह पल, पलक झपकते ही खत्म हो जाते और फिर हवा में गर्माहट आ जाती, जिसकी तपन से घर की दीवारें तपने लगती , दरकने लगती और कुणाल को जीवन बहुत उलझन भरा लगता, लेकिन जैसे -तैसे वह बड़ा होता गया। उसके मन से एक बोझ उतर सा गया । वह जो सोचता था कि उसके मम्मी -पापा के झगड़े की वजह वह स्वयं था, अब उसे समझ में आने लगा कि उनके आपसी व्यवहार के कारण कुछ और ही हैं।

           अबकी बार कुणाल मैट्रिक की परीक्षा देकर आया था । परिणाम आने में एक-दो महीने लगेंगे, तभी नया सत्र शुरू होना था । एक बार तो मम्मा से कुछ दिन किसी दोस्त के यहां साथ जाने के लिए कह दिया था, लेकिन मम्मा ने ना जाने की जिद की और लेने पहुंच गई तो साथ आना पड़ा । वही दो-चार दिन बीतने के बाद उसको घर की दीवारें सूनी- सूनी नजर आने लगी। पापा का पदस्थापन भी कहीं दूसरे शहर बीकानेर में हो गया था और मम्मा का दूसरे शहर भरतपुर में । उनके मूल निवास अलवर का मकान एक चौकीदार के जिम्में छोड़कर आए थे । वह मम्मा के साथ ही सरकारी क्वार्टर में छुट्टियां बिताने के लिए मजबूर था । हफ्ते-दस दिन में उसकी वजह से कभी- कभार पापा आ जाते थे । उस दिन पूरा समय कुणाल के साथ बिताते, शतरंज खेलते और अच्छी तरह मन लगाकर अध्ययन करने के लिए कहते । लेकिन उस एक दिन के बाद फिर खालीपन आ जाता और सारे दिन घर पड़ा- पड़ा बोर होता, करे भी तो क्या करें ? यहां कोई यार- दोस्त भी तो नहीं था, दोस्तों से मोबाइल पर चैट करते- करते थक गया । वह भी उसको ही तो पूरा वक्त कैसे दे पाते ? रात्रि खाने के पहले ही मम्मा आ पाती थी । कई बार तो सरकारी काम से बाहर भी जाना पड़ता था। बस वह और काम करने वाली बाई जी। खैर इस तरह वक्त गुजर गया । उसको भी आदत पड़ गई अकेले रहने की ।

          मैट्रिक परीक्षा का परिणाम आ गया और उसने 86% अंकों के साथ परीक्षा उत्तीर्ण की। उस दिन राघव भी घर आ गया था। दोनों मम्मी पापा ज्यादा तो नहीं लेकिन 86% अंकों के साथ संतोषप्रद सुखद स्थिति में थे । आज कई महीनों बाद रात्रि भोजन एक साथ करते समय रघु बोला,- " कुन्नू, अब आगे क्या प्लान है, कौन सा सब्जेक्ट लेगा ?"

          कुणाल उत्तर देता उससे पहले ही अनीता बोली,- " पूछना क्या है ? डॉक्टर की लाइफ सेट है, हमारी तरह मारा-मारी नहीं करनी पड़ेगी, इसलिए बायोलॉजी ही बेस्ट है।"

        " हां यह तो है, वैसे भी गणित में थोड़े कम ही अंक आए हैं, इसलिए मेरे ख्याल से भी आईआईटी से डॉक्टर बनने का विकल्प ही बेहतर है। फिर कहीं अच्छी जगह देखकर हॉस्पिटल बनवा देंगे।" रघु बोला।

        " हां यही ठीक रहेगा।" अनु ने सहमति व्यक्त की।

         कुणाल के बोलने से पहले ही मानो उसके भविष्य के जीवन की पटकथा लिख दी थी मम्मी पापा ने। उसकी जिंदगी जैसे किसी रेलगाड़ी की तरह हो और स्टेशन नियंत्रक ने उन्हें पहले से ही पटरी बिछाकर, सिग्नल लगाकर, गंतव्य स्थल तय कर रखा हो, ड्राइवर गाड़ी रोक तो सकता है, किंतु गंतव्य स्थल नहीं बदल सकता, गंतव्य स्थल बदलने के लिए तो किसी दुर्घटना को अंजाम देना होगा, तभी गाड़ी निर्धारित पटरी से उतर सकती है। आखिर थोड़ी हिम्मत कर कुणाल बोला,- " पापा आईआईटी और डॉक्टर बनने के अलावा भी तो क्षेत्र हैं, कैरियर बनाने के लिए, मुझे विज्ञान, गणित ज्यादा अच्छे नहीं लगते हैं ।"

        "और क्या है बता तो? मास्टर बनेगा, या पटवारी या किसी कार्यालय में बाबू ? वह तो बायोलॉजी पढ़कर भी बन सकता है।"

        " हां बेटा और पहले एम.बी.बी.एस. तो हो जाए, फिर सिविल सर्विसेज की इच्छा हो तो वह भी ट्राई कर लेना, बहुत सारे डॉक्टर का आइ.ए.एस., आर.ए.एस.में चयन हो जाता है।" अनु ने समझाया ।

        "लेकिन मेरे साइंस- मैथ में अंक भी कम है, मुझे ज्यादा अच्छे नहीं लगते।"

        " अच्छा, ज्यादा अच्छा का पता है तुम्हें ? 86% अंक ठीक हैं, दिमाग तो तुम्हारे पास है, अब तुम उसका उपयोग कैसे करते हो, यह तुम पर डिपेंड करता है , इसलिए अभी तुम सिर्फ 12वीं बोर्ड की परीक्षा की तैयारी करो, आगे हम हैं ना तुझे संभालने के लिए, बस जुनून चाहिए बेटा, कर तो तुम बहुत कुछ सकते हो।" रघु ने अच्छा सा भाषण दिया ।

         "हां बेटा, अभी तुम्हें जीवन की समझ ही क्या है ? तुम बस कठिन परिश्रम करो, आगे हम देख लेंगे ।" मम्मी ने भी मानो मोहर लगा दी ।

          कुणाल उस समय क्या कहता, उनकी बातों को काटने या समझाने का सामर्थ्य उसमें कहां था, बस मन में सोच रहा था कि वे कहां थे और क्या उनमें समझने का धैर्य था ? नए सत्र में उन्होंने उसको बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया और जीव विज्ञान संकाय में प्रवेश दिलवा दिया गया । कुणाल मानो किसी बेमेल साथी को लेकर जीवन सफर तय कर रहा था, जिसके साथ जिंदगी गुजारना तो नहीं चाहता था, किंतु माता-पिता की मान- मर्यादा का ख्याल रखते हुए बस चले जा रहा था । जिंदगी एक उलझन, एक बोझ सी लगने लगी । धीरे-धीरे काम की तरह पढ़ाई करने लगा, मन जब ज्यादा उब जाता और परेशान होता, तो पहाड़ों में बनी छोटी सी प्राकृतिक झील के किनारे जाकर बैठ जाता । उसके आसमानी फर्श पर लौटती हुई लहरें, उसे गले लगाने को आतुर दिखाई देती, ऊपर से बहने वाली ठंडी हवा का स्पर्श, उसके चेहरे पर होता तो मानो आकाश की देवी उसका मुखारविंद चूमती सी महसूस होती, किनारे पर खड़े पेड़ों की शीतल छांव मां की गोद की तरह सुकून पहुंचाती, उसको बड़ी मानसिक शांति मिलती और वह वहां घंटो पलक झपकने के समान समय गुजार देता। धीरे-धीरे दिमाग की समझ बढ़ने लगी । जब उन विषयों का अध्ययन करना ही था, तो परिश्रम करने में क्या हर्ज है और उसी प्रकार अध्ययन करने लगा, जैसे मां किसी बच्चे को जबरदस्ती घी के लड्डू और बादाम खिलाती है, जिनको वह उसके शरीर की ताकत बढ़ाने के लिए आवश्यक मानती है, जो उसको ज्यादा रूचते ही नहीं, ना ही उसके अंग लगते हैं और ना ही शक्तिवर्धक सिद्ध होते हैं। उसे तो कढ़ाई में सिकी गरम-गरम मूंगफली व गुड़ और पेड़ पर पके आम खाने में मजा आता है और वही उसको पुष्टिवर्धक होता है, किंतु बेमन से खाये घी के लड्डू और बादाम को शारीरिक व्यायाम कर पचाने का प्रयास कर रहा था । फिजिक्स केमिस्ट्री के चैप्टर को कई -कई बार पढ़ना पड़ता, कुछ रटता, तब कुछ समझ में बैठता । बार-बार अध्यापक के निवास पर सवाल समझने जाता। इस तरह वह दौड़ के लक्ष्य की दूरी के मार्ग को सिर पर बोझ रखें किसी धावक की भांति आगे बढ़ने का प्रयास करने लगा ।

           सत्र समाप्त हुआ और उसने 72% अंकों के साथ 11वीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। अबकी बार ग्रीष्मावकाश में भी उसके लिए अवकाश नहीं था । मम्मा पहले ही आकर कोचिंग की व्यवस्था कर गई थी और उसको भौतिक -रसायन विज्ञान की अतिरिक्त ट्यूशन लेनी थी और नीट परीक्षा हेतु तैयारी करनी थी। इसलिए घर तो आना ही नहीं था वह टुकड़ों में खपने लगा, थोड़ा तनाव भी दिमाग पर असर डालने लगा, लेकिन परिश्रम करने से वक्त गुजर जाता । इस बार 12वीं बोर्ड परीक्षा उसने 80% अंकों के साथ उत्तीर्ण की, तो मम्मा- पापा का हौसला बढ़ गया। और क्या सोचना था, वहां से सीधा कोटा कोचिंग शहर का टिकट बन गया और एक नामचीन कोचिंग संस्थान में प्रवेश दिला कर रहने- खाने की अच्छी व्यवस्था कर दी गई । मम्मा- पापा अबकी बार एक साथ कोटा छोड़ने आए । दोनों ने प्रेरित करने के उदाहरणों की कोई कमी नहीं छोड़ी और समय-समय पर आते रहने का भरोसा दिलाया।

           अब जिंदगी का जो दौर शुरू हुआ, वह बेहद तनाव भरा था। यहां पहुंचकर कुणाल को लगा मानो कोई बहुत तेज दौड़ चल रही है, हर कोई तेज से तेज भागने और जीतने का प्रयास कर रहा है, मानो सारा युवा वर्ग ही दौड़ जीतने के लिए अंधा होकर दौड़ रहा है, कुछ हताशा की चक्की में पिस रहे हैं, कुछ निराशा के सागर में डूब रहे हैं, किसी के पैर डगर के कांटो- कंकड़ो से छलनी हो गए हैं, कोई असफलता से टूट गया है और मार्ग में छुपकर दूसरी राह पर चल पड़ा है, ताकि परिजनों को दिखाई ना दे और वे सोचते रहे कि उनका बच्चा दौड़ते हुए कहीं आगे निकल गया है। कैसा शहर है यह है ? हर जगह चाय की थड़ी, सब्जी फल का ठेला, जूस कॉर्नर, रेस्टोरेंट, बाजार, पार्क, कोचिंग, निवास, सब जगह उस दौड़ की ही चर्चा है । देहरादून की वादियों में मन को तनिक सुकून तो मिलता था, यहां तो वह भी नसीब नहीं है ‌। वह भी पुरजोर लगाकर दौड़ने लगा, लेकिन उसको डगर बहुत कठिन जान पड़ती थी, उसको लगा कि सभी उससे अच्छे धावक हैं। कक्षा में धीरे-धीरे उसके साप्ताहिक, पाक्षिक जांचों में निम्नतर अंक आने लगे, शिक्षक जो गृह कार्य देते, पूरा ही नहीं होता था, नींद नहीं आती, रात भर लगा रहता, किंतु कुछ ज्यादा गति नहीं पकड़ पा रहा था । सोता तो डरावने सपने आते, मानसिक संतुलन गड़बड़ाने सा लगा। मम्मा- पापा को बताया तो उन्होंने ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया और सोचा कि शायद पढ़ने में मन नहीं लगने की वजह से, ऐसा कह रहा था, या शायद उनके पास वक्त ही थोड़ा कम था उसकी बातों को संजीदगी से गले लगाने के लिए। एक साथी डॉक्टर के पास लेकर गया, उसने कुछ दवाएं दी, धैर्य रखने और पूरी नींद लेने की सलाह दी और समझाया कि इस तरह तनाव नहीं ले, जरूरी नहीं है कि अभी परीक्षा में कम अंक आने वालों का नीट में चयन नहीं होता , थोड़ी राहत मिली ।

           कुणाल जैसा भी हो तैयारी करने लगा, पूरी मेहनत करने की कोशिश की, किंतु ऐसी तैयारी कहां रंग लाती है और नीट परीक्षा में इस वर्ष असफल रहा। बहुत ही कम अंक आ पाये थे। दोनों मम्मी पापा आ गए। मम्मी समझाने लगी,- " बेटा धैर्य रखो, इस साल तुम्हारा मन भी नहीं लगा था ना हम अबकी बार फिर अच्छी तरह से मेहनत करेंगे , एक-दो विषय का और अलग से कोचिंग ले लो।"

          "कोचिंग अलग से लेने का फायदा तो तब हो ना, जब मन के अंदर भूख हो, पहले से ही हार मान कर कुश्ती लड़ने वाला पहलवान कभी जीतता है क्या और भूख तब पैदा होती है जब देर तक खाना नहीं मिलता है, कुन्नू माना कि हमारे पास सब कुछ है, तेरा ही है, किंतु जीवन जीने का मजा तभी आता है, जब आदमी खुद अपना वजूद सिद्ध करता है, हमने देखो कुछ सुविधा नहीं थी, फिर भी कामयाब हुए।" रघु फटकारता हुआ सा समझाने लगा।

           कुणाल को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे, उसके पास सब कुछ क्या था और कौन अपना वजूद सिद्ध नहीं करना चाहता, उसको भूख क्यों नहीं लगती , चुपचाप सुनता रहा दोनों उसको समझाते रहे और दोबारा तन- मन से परीक्षा देने हेतु तैयार करते रहे। आखिर कुणाल ने अपनी भावना व्यक्त करना चाहा,- " पापा मैं भी जीवन में कुछ अच्छा करना चाहता हूं, अपना वजूद बनाना चाहता हूं, मेहनत भी करता हूं, किंतु मुझे भौतिक- रसायन विज्ञान बहुत कठिन लगते हैं, ज्यादा समझ नहीं बैठते।"

           " कोशिश करो बेटा, मेहनत से असंभव को भी संभव में बदला जा सकता है, फिर यह कौन सी असंभव चीज है, एक बार एमबीबीएस में प्रवेश मिल जाए बस, अबकी बार मैं भी तुम्हारे पास ही बीच-बीच में आती रहूंगी और जब भी तुम्हारा मन ना लगे हमसे वीडियो कॉल करना।"मम्मी बोली।

            और कुन्नु को बेमन से फिर उनकी बात माननी पड़ी । दोनों चले गए और कुणाल का जीवन मानो पल- पल बोझिल होता जा रहा था । दोनों आने का वादा तो कर गए थे, किंतु मौका ही नहीं मिला होगा । दोनों की पदोन्नतियां भी नजदीक थी, कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे। कुणाल जी तोड़कर परिश्रम करने की कोशिश करने लगा, किंतु पार पाना बहुत ही मुश्किल हो रहा था। आखिर धैर्य जवाब देने लगा। ऐसा कोटा में वह अकेला नहीं था और एक जैसे दर्द वाले लोगों में निकटता जल्दी हो जाती है। उसको कई साथी मिल गए, कभी-कभी तनाव दूर करने के लिए सिगरेट व शराब का भी सेवन करने लगा । कोचिंग की जांच परीक्षाएं दिन- प्रतिदिन उसका मनोबल तोड़ रही थी। उसकी श्रेणी बदतर होती जा रही थी। कई महीने और गुजर गए। एक दिन पार्क में वह अकेला काफी देर बैठा रहा। आगे के जीवन के मन में चित्र खींचता रहा। आगे क्या होगा..? वह ऐसा क्यों कर रहा है ..? जबकि उसको पता है कि उसका चयन नहीं होगा। आखिर उसने आज कोई फैसला कर लिया। मम्मा- पापा के नाम एक खत लिखा और अपने निवास से निकल गया।

 खत में लिखा था---

"प्रिय मम्मी पापा, 

            आज मैं तुमसे बहुत दूर जा रहा हूं। पता नहीं कितना दूर निकल जाऊंगा, या शायद इतना भी दूर की फिर कभी नहीं लौट पाऊंगा। तुम्हें छोड़ते हुए तकलीफ हो रही है पा, किंतु मेरा दम घुटा जा रहा है । मैं आपका नालायक बेटा निकल गया हूं, आपकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया, लेकिन मैंने कोशिश जरूर की, अब मुझसे यह बोझ उठाया नहीं जा रहा है पापा । आपने कोटा में मेरी कोचिंग रहने- खाने की व्यवस्था में कोई कमी नहीं छोड़ी, मैंने पूरी मेहनत करने की भी कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो पाया । मुझे केमिस्ट्री- फिजिक्स अच्छे नहीं लगते पापा, समझ ही नहीं बैठते, क्या करूं? ज्यादा रटा भी तो नहीं जाता। आप कहते हैं मेहनत से सब कुछ संभव है, ऐसा नहीं है पा, मेहनत सही दिशा में भी होनी चाहिए, उसमें आनंद भी आना चाहिए। एक व्यक्ति सुबह से शाम तक एक सर्किल के चक्कर काटता रहेगा तो वह दूसरे शहर कैसे पहुंच पाएगा ? आप कहते हो कि आपने मेरी हर चीज का ध्यान रखा है तो यह ध्यान क्यों नहीं रखा कि मुझे फिजिक्स- केमिस्ट्री में रुचि नहीं है ? जब मेरे कक्षा परीक्षाओं में कम अंक आते तो आप क्यों नहीं देख पाए, पापा- मम्मा तब कहां थे आप ? शिक्षक विद्यार्थियों के अभिभावकों से बातें कर उनको बच्चों के बारे में बताते थे, आप नहीं आए पापा, मैंने कई बार आपको बताने की कोशिश की...? आप कहते हो और मेहनत करो, अतिरिक्त ट्यूशन लगाओ, जुनून दिखाओ, कहने से क्या होता है पापा, अतिरिक्त सुविधाएं जुटाने से डॉक्टर बन सकते तो सारी सीट पैसे वालों की ही होती..?

         मुझे साहित्य पढ़ना- लिखना अच्छा लगता है। यादें जब मैं नवी कक्षा में पढ़ता था तो वार्षिक उत्सव पर मैंने अपनी लिखी कविता मंच पर सुनाई दी थी, तो सब ने बहुत तारीफ की थी। लेकिन आपको कैसे याद होगा, आप तो आ ही नहीं पाए थे, तब कहां थे आप पापा..? मुझे बहुत कमी खलती थी । मैं जानता हूं कि आप मेरा बुरा कोई चाहेंगे, मेरे लिए सब अच्छा ही सोचा होगा, लेकिन कई बार हमारा सोचा हुआ अच्छा नहीं होता पापा। मुझे प्रकृति की गोद में समय बिताना अच्छा लगता है मम्मा, शायद तुम्हारी गोद में कम ही समय बिताने को मिला है ना, इसलिए प्रकृति की गोद में रहने की आदत बन गई है । झरनों की कल-कल में मुझे संगीत सुनाई देता है, पेड़- पौधे, पक्षी, पहाड़, नदियां, झरने , जंगल और जंगल में रहने वाले प्राणी, मन को बहुत भातें हैं । जी करता है कि नदी की लहरों के संग बहता जाऊं, पक्षियों की चहचहाहट के साथ कोई कविता सुनाऊं, नदी की सरसराहट में कोई गीत गाऊं, इन पहाड़ों की हरी-भरी वादियों में बैठा हुआ कहानी लिखूं, मुझे साहित्य पढ़ना- लिखना अच्छा लगता है पा, आप लोगों ने क्यों नहीं समझा, आप कहां थे पापा..?

          जब मेरा विद्यालय के छात्रावास में मन नहीं लगता था, आप लोगों की बहुत याद आती थी। 6 महीने में 2 दिन के लिए साथ रहना, साथ होना होता है क्या ? आप लोगों ने मेरे लिए अच्छा ही सोचा होगा, पर पता नहीं भगवान ने मुझे थोड़ा ज्यादा भावुक बना दिया है शायद, और बहुत ज्यादा भावुक व्यक्ति जब टूटता है तो बहुत ज्यादा टूटता है पा । फिर भी मैंने अपने आप को संभालने की कोशिश की थी, अब तो आदत बन गई है , कोशिश करूंगा आपके पास लौट सकूं मम्मा- पा। कोटा के दो वर्ष बहुत तन्हा महसूस किया । पता है करने को बहुत कुछ होता था और दिन था कि निकलता ही नहीं था, रात्रि को जब कोचिंग से मिले होमवर्क की सीट हल नहीं कर पाता था, तो बहुत रोता था, सो नहीं पाता था, डरावने सपने दिखाई देते थे। मुझे आपकी मम्मा की बहुत याद आती थी, मुझे उस समय आपकी बहुत जरूरत थी पा, आप क्यों नहीं आए ? मम्मा को ही भेज देते कहां थे आप ? तीन वर्षों में, मैं कई बार टूटा हूं, इतना कि कई बार दुनिया छोड़ने का विचार किया, लेकिन शायद इतना साहस ही नहीं जुटा पाया । जब भी ऐसा ख्याल दिमाग में आता आप दोनों के चेहरे मेरी आंखों के सामने आ जाते थे । सोचता था मर कर भी क्या मेरी आत्मा मुक्त हो पाएगी । तुम्हें मेरे गुनाहों से दुखी क्यों करूं, लेकिन क्या करूं, अब मुझे इस तनाव के साथ चला नहीं जा रहा है, मैं जीना चाहता हूं, मरने से मुझे बहुत डर लगता है ‌। पता है मेरे कई साथियों की स्थिति भी मेरे जैसी थी । उनमें से कई तो शराब और सिगरेट का सेवन करने लगे थे । मुझसे कहते कि इनका सेवन करने से चिंता कम हो जाती है, नींद अच्छी आती है । मैं भी कभी-कभी सिगरेट पीने लगा था, यदा-कदा शराब भी, लेकिन फिर भी मुझे नींद अच्छी तरह नहीं आती थी, पापा आपने मुझे क्यों नहीं रोका, कहां थे आप पापा ? जब बात लक्ष्य हासिल करने की होती है तो आप हमेशा जोश भरने की कोशिश करते हो, अच्छे-अच्छे उदाहरण और ज्ञान की बातें भी बताते हो, लेकिन जब मैं टूटता जा रहा था आप संभालने क्यों नहीं आए, कहां थे आप पा...?

           मम्मा- पापा आप दोनों बहुत ही प्रतिभाशाली हो, तभी तो प्रशासनिक अधिकारी बने हो , मैं आपके जितना काबिल नहीं हूं, लेकिन इसमें मेरी गलती क्या है? ईश्वर ने मुझे इतना ही दिमाग बक्सा है, फिर विधाता भी तो दुनिया के सभी व्यक्तियों को एक जैसा कहां बनाता है ? उनको अलग-अलग क्षमताएं, अभिरुचियां, कुशलताएं और व्यक्तित्व प्रदान करता है । मेरी क्षमताएं और रुचि भी अलग हो सकती हैं, लेकिन यह कभी आपने जानने की कोशिश कहां की पा ? आपके पास वक्त ही कहां था मुझे जानने या समझने का, आप कहां थे पा ? आप लोग मेरी रुचियों, क्षमताओं को क्यों नहीं देख पाए ? आपको कई बार समझाने की कोशिश की । अपनी बात कहने की कोशिश की । पर आपके पास वक्त ही कहां होता था और होता भी था तो मेरी बात सुनना ही कहां चाहते थे ? बस एक बात कह कर पीछा छुड़ा लेते की ऐसी कमजोर लोग बात करते हैं । मैं मन लगाकर अध्ययन नहीं करता, इधर -उधर की बातें छोड़कर पूरे मन से अध्ययन में समर्पित रहूं। यही समझाते, लेकिन यह कैसा समर्पण था पापा, जो मेरी जिंदगी को ही निगलता जा रहा था, मैं बहुत थक गया हूं, पापा और कोई मार्ग दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए बस छोड़कर जा रहा हूं, यहां से दूर, अपनी रुचि का कुछ अच्छा कर सका और सफल हो सका तो, एक दिन जरूर लौट कर आऊंगा, तब आपको कोई गिला- शिकवा नहीं होगा । लोग यह नहीं कह सकेंगे कि आपका बेटा निकम्मा, नालायक निकला, जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं कर सका, आपका सिर शर्म से नीचा नहीं होने दूंगा, यदि कुछ नहीं कर सका तो पता नहीं जीवन किस दिशा में लेकर जाए, कितना दूर निकल जाऊं, शायद फिर कभी लौटना संभव नहीं हो, तो कह देना कि बेटा कुछ करने के जुनून में घर से निकल गया।

          मैं तुमको और मम्मा को बहुत याद करूंगा, मम्मा को थोड़ा वक्त निकालकर संभालना, मैं जानता हूं कि आप की पुलिस की सेवा में घर के लिए वक्त थोड़ा कम ही मिल पाता है, लेकिन हो सके तो अब मम्मा को अपने साथ रखना ।

तुम्हारा बेटा,

कुन्नू।"

         अनीता ने खत खोलकर पढ़ा तो सांसे थमी रह गई, हाथ कांपने लगे, खत जमीन पर गिर पड़ा। बदहवासी से लपक कर उठाया, मानो उसकी लापरवाही से, नन्हा सा लाडला हाथों से छिटक कर धरा पर गिर पड़ा हो और उसको गहरी चोट लग गई हो। एक पल में मानो सारा ब्रह्मांड नेत्रों के सामने घूम गया । आज राघव भी वहीं था। दोनों आज कुणाल के जन्मदिन पर कई सालों बाद एक साथ कोटा आ रहे थे । अचानक अनीता धम से गिर पड़ी, आवाज सुनकर रघु बाहर निकल कर आया, तो देखा, हाथ में एक कागज लिए अनु बेहोश फर्श पर पड़ी है । उसको संभाल कर बैठाया, मुंह पर पानी के छींटे दिए, थोड़ा पानी पिलाया, फिर होश आया। वह भी कागज के पुर्जे पर लिखे शब्दों को पढ़ने लगा, आंखें ठगी सी रह गई, दिल की धड़कन बढ़ गई। दोनों ने खत को बार-बार पढ़ा मानो अपने अस्तित्व को बचाने का कोई सुराग ढूंढ रहे थे। आज दोनों एक दूसरे को ताना- उलाहना नहीं दे रहे थे, बस एक- दूसरे की ओर निर्जीव से, दो पुतले देखे जा रहे थे, आंखों से रिसता अंतहीन पानी, मानो उनके जीवित होने का एहसास करा रहा था, चक्षुओं में जैसे नीर का कोई अथाह सागर सृजित हो गया था, जिसका कोई तीर ना था । मां की ममता और पिता के वात्सल्य के घने बादल हृदय में उमड़- घुमड़ कर फटने को आतुर थे । आज सारे अभिमान, पद, रुतबा व्यक्तिगत अहम की सख्त लोहे सी लगने वाली दीवारें, किसी मोम की भांति पिघल गई। दोनों अपने जीवन के तरीके, बेतरतीब तर्कों पर पछताने लगे, लेकिन अब क्या था पछताने के सिवा ?

         कई बार हम जीवन की मंजिलें, अपने ही बनाए बेतुके लक्ष्यों को पाने के लिए, इतने अंधे होकर दौड़ते हैं कि जीवन का मूल सार ही कहीं बहुत पीछे छूट जाता है और फिर जीवन निरर्थक, निरुद्देश, सारहीन सा प्रतीत होने लगता है । आज मानो उनको एकदम से जीवन का सत्य समझ में आने लगा, जैसे मुक्ति के मार्ग से भटकी हुई आत्मा को सत्य की चेतना हो गई हो, उसमें उचित- अनुचित का बोध किसी दीपक की लौ की भांति जगमगा उठा, किंतु अब क्या था वक्त रूपी दीपक का तेल पहले ही खत्म हो चुका था।

         "यह क्या हो गया अनु, कितना बड़ा गुनाह हो गया हमसे, कैसे अंधे हो गए , अपने जिगर के टुकड़े को किस गर्त में ढकेल दिया।"

         " बहुत बड़ी चूक हो गई रघु, मैंने मेरे ही हाथों से मेरे लाड़ले के गले का फंदा तैयार कर दिया, अब जिया नहीं जाएगा ।"

         "बावली मत बनो, हम उसको आकाश- पाताल एक कर ढूढेंगे, क्या पता विधाता हमें हमारे कर्मों का एहसास दिलाना चाहता हो।"

         "यदि कुन्नु नहीं मिला, तो सच में जीने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।"

         " पढ़ी लिखी होकर ऐसी बात मत करो, धैर्य रखो।"

          दोनों तुरंत गाड़ी लेकर कोटा के लिए रवाना हुए। सब जगह छानबीन की मकान मालिक, यार- दोस्त, कोचिंग इंस्टीट्यूट, शिक्षक, गली के दुकानदारों, सभी को जैसे गिड़गिड़ाते हुए से भीख मांग रहे थे, कहीं से कुछ उम्मीद की किरण झलक जाए, लेकिन कुणाल का कुछ अता पता न था। पुलिस में एफ आई आर दर्ज करवाई, अखबारों में इश्तेहार भी निकलवाए, टीवी चैनलों के माध्यम से भी लोगों से अपील की, लेकिन जैसे कुन्नू को जमीन निगल गई थी या आसमान में खो गया था, कोई चिन्ह दिखाई नहीं दिया। पैसा, रुतबा, सामर्थ्य, शक्ति कुछ काम नहीं आया । दोनों जैसे पंख कटे पक्षी की भांति धरा पर औंधे मुंह पस्त पड़े रह गए । जीवन नीरस, सारहीन सा प्रतीत होने लगा।

          आज कुणाल को गए 6-7 वर्ष हो गए। शायद उसको बोझ से मुक्ति का यही मार्ग उचित लगा होगा, पता नहीं जिंदगी की उलझन अभी भी खत्म नहीं हुई होगी या कोई उलझन ही बाकी नहीं बची होगी । तभी तो अभी तक कोई खोज खबर नहीं है । अपनी जिंदगी पर उसका हक था, लेकिन दो और जिंदगियों का सार, जीने की उमंग भी अपने साथ लेकर चला गया और उनको चलते फिरते सांसो वाले शरीर में तब्दील कर गया । और स्वयं की जिंदगी पर क्या केवल उसका ही हक था...? लेकिन कभी-कभी किशोर वय में हम घने जज्बाती भी हो जाते हैं और एक पल के लिए भूल जाते हैं कि हमारा कृत्य क्या झंझावत लाएगा, भूल जाते हैं कि एक पल कैसे हमारी जीवन की कहानी तोड़ मरोड़ कर रख देगा, हमारी दुनिया बदल देगा।

          शहर के बीचो- बीच कंपनी बाग के नाम से एक बड़ा उद्यान है, उसमें पुराने समय से शहरवासी प्रातः सायं वहां टहलने आते हैं। विभिन्न प्रकार के पेड़- पौधों, फूलों की क्यारियां, मनोहरी लगती है, घास का एक बड़ा सा मैदान भी है, जिसमें बच्चे युवक क्रिकेट, फुटबॉल खेलते हैं । मैदान के किनारे एक पुराना पीपल का पेड़ है, जिसके नीचे बैठने के लिए कई पत्थर की बेंच है। एक शख्स रोजाना प्रातः यहां बेंच पर बैठता है । आधी पकी सी दाढ़ी, शाल ओढ़े, शक्ल से गंभीर सा लगता है, घंटो यहां बैठा रहता है और मैदान में खेलने वाले युवकों को निहारता रहता है ।कभी पेड़ के ऊपर की ओर देखता है जैसे पीपल में छिपे किसी जाने पहचाने से पक्षी की आवाज सुनकर उसको निगाहें तलाश रही हो या भगवान से कुछ कह रहा हो। कई बार शाम ढले उसके साथ एक महिला भी दिखाई देती है । लगभग 50 की उम्र में ही वृद्ध नजर आती है, आधे से बालों की सफेदी साफ दिखाई देती है, कलर या मेहंदी नहीं लगाती है। दोनों पहरों तक वहीं बेंच पर बैठे रहते हैं, शायद बहुत फुर्सत में हैं, पास ही उद्यान के दरवाजे पर कोई युवक आता- जाता है तो उसको देखने के लिए नजर ठहर सी जाती हैं, काफी रात ढले दोनों साये डगमगाते हुए से, धीरे-धीरे उद्यान से निकलते हैं। यह दोनों अनीता और राघव हैं, जिन्होंने तय आयु से पहले ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है। दोनों एक- दूसरे को ढांढस बंधाते हुए, आज भी किसी आशा की किरण की खोज में अपना सफर तय कर रहे हैं कि एक दिन अचानक कुणाल आएगा और उनके गले से लिपट जाएगा।