अधूरी बाज़ी

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अक्सर शतरंज खेलते हुए जतिन दा कुछ दार्शनिक भाव से कहते थे। ये जीवन भी शतरंज की बिसात है जिस पर हम सब नियति के साथ खेल रहे हैं। नियति अपने मोहरे इस प्रकार चलती है कि कभी कभी हम उसकी चाल में फँस कर रह जाते हैं। यदि उसकी चाल से बाहर निकल आते हैं तो खुश होते हैं यदि न निकल सके तो दुःखी होते हैं। ऐसे ही सुख और दुःख के बीच जीवन चलता रहता है। फिर एक दिन नियति अचानक ही हमारा खेल समाप्त कर देती है और हम यूं ही बाज़ी को छोड़कर चले जाते हैं।