संन्यास

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वह पगडंडियों के सहारे चला जा रहा था। गुस्से से काँपता उसका शरीर कभी इधर कदम रखता था तो कभी उधर। उसे खुद होश नहीं था कि आखिर वो जा कहाँ रहा है। इतना तो पता था कि कहीं दूर जा रहा है, अपनी घर-गृहस्थी से कहीं दूर, संन्यास लेने।सूरज आकाश में तेज़ चमक रहा था। उसने सुबह की प्रथम बेला में ही लड़-झगड़कर घर त्यागा था। उसे चलते हुए लगभग तीन घंटे हो चुके थे। इस बीच उसने न एक घूंट पानी पिया था न एक लंबी साँस ही ली थी। साँस लेना तो वो जैसे भूल ही गया,