स्वयंसिद्धा

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उसके नाम के बिना शायद में कभी अपना वजूद सोच भी नहीं सकती थी ,फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि वो मुझसे मानसिक तौर पर जुदा हो गया I शारीरिक जरूरतें तो पूरी करनी ही थी आखिर जानवर  जो था पर इतना भी पशु नहीं था कि बाहर मुंह मारने जाता क्योंकि उसमें  हज़ार तरह की बिमारियों का खतरा जो था I तो तन के स्तर पर एकतरफा सम्बन्ध हमेशा ही चलते रहे चाहे मर्जी हो या ना हो I  एक आज्ञाकारी कुतिया की तरह सदैव एक हड्डी पर दौड़कर मैं उसकी सेवा में अपना बदन नुचवाने के लिए पहुँच