मधुमक्खियाँ

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बहुत अलग थी वह शाम, अबाबीलें सर पर गोल चक्कर काट रहीं थीं. बावड़ी की मेहराबों के नीचे बने अपने गन्दे...कीचड़ – काग़ज़ के बने बदबूदार घोंसलों में नहीं लौट रही थीं...सूरज ठण्डा पड़ गया था, मेरे गाल दहक रहे थे, आँखों में सहज ही उबल आने वाले आँसू, किसी सपने की मेंड़ की आड़ ले ठहर गए थे, बस एक खेत की सी संतुलित नमी आँखों में थी.