मांस

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भरी गर्मी के दिन थे सूरज आग लेकर सर पर खड़ा था पसीना बूंदों की जगह पानी की धार बनकर बह रहा था कहने को आस- पास पानी  बहुत था पर बदन के नमक वाला पानी ही सूरज को चाहिए था जैसे उसे भी बहुत प्यास लगी हो और जिसे नदी झरने से ज्यादा इन्सानों के शरीर का पानी पीना हो।हर साल चंद महीने सूरज इतनी ही आग उगल कर अपना गुस्सा ठंडा करता है न जाने किस से चन्द महीने ये रूठकर बैठ जाता है ऐसे ही जलती हुई दोपहर में बस अड्डे पर एक बस आकर खड़ी हुई ।