शाम गहराने लगी है । स्टेशन के बाहर अहाते में खड़े नीम के पेड़ शांत हैं । हवा जैसे मेरे दिमाग की भांति सुन्न होकर कहीं जा दुबकी है । नीम के पत्ते भी खामोश हैं । ऊपर आसमान की तरफ देखता हूं तो शहर के तमाम तोते स्टेशन वाले नीम के पेउ़ की तरफ उड़े आ रहे हैं । मैं जब जब स्टेशन आता हूं तो नीम पर बैठे सैकड़ों-हज़ारों तोतों को बसेरा करते देख अभिभूत हो जाता हूं, लगता है जैसे आम के पेड़ पर तमाम कैरियां लट़कीं हों । मगर आज मैं इस सबसे बेखबर हूं । ना स्टेशन पर कोई गाड़ी आने का वक्त है, ना जाने का । वो भी वीरान पड़ा है । कुछ कुली नीम के पेड़ के नीचे ही अपना गमछा बिछाकर अपने आपको अगली गाड़ी से आने वाले मुसाफिरों का सामान ढोने के लिए उर्जा से भर लेने को अलसाये पड़े हैं ।