बहीखाता - 17

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बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 17 जान बची ! मैं जज़्बों की बड़ी बड़ी लहरों पर टंगी फिरती थी। बाहर से मन में ठहराव रखती, पर अंदर बहुत कुछ घटित हो रहा होता। इन्हीं दिनों भाई आनंद सिंह मिल गए। वही भाई आनंद सिंह जो तीन नंबर गली में ग्रंथी हुआ करते थे। जो बहुत बढ़िया पाठ किया करते थे, जिन्होंने मेरे नौकरी लगने पर पाठ किया था। ये अब वो भाई आनंद सिंह नहीं रहे थे। वह अब अमेरिका रिटर्न भाई आनंद सिंह बन गए थे। जैसे तैसे वह अमेरिका पहुँच गए थे। वहाँ के