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बहीखाता - 17

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

17

जान बची !

मैं जज़्बों की बड़ी बड़ी लहरों पर टंगी फिरती थी। बाहर से मन में ठहराव रखती, पर अंदर बहुत कुछ घटित हो रहा होता। इन्हीं दिनों भाई आनंद सिंह मिल गए। वही भाई आनंद सिंह जो तीन नंबर गली में ग्रंथी हुआ करते थे। जो बहुत बढ़िया पाठ किया करते थे, जिन्होंने मेरे नौकरी लगने पर पाठ किया था। ये अब वो भाई आनंद सिंह नहीं रहे थे। वह अब अमेरिका रिटर्न भाई आनंद सिंह बन गए थे। जैसे तैसे वह अमेरिका पहुँच गए थे। वहाँ के गुरद्वारों में ग्रंथियों की ज़रूरत थी। वह वहाँ जाकर बहुत सफल रहे थे। खूब पैसे कमाकर लौटे थे। वहाँ अमेरिका में भी काफ़ी चलते पुरज़े की तरह थे। मैं उनके बदले हुए तेवर देखकर चकित रह गई। वह मुझसे कहने लगे कि मैं क्यों नहीं अमेरिका होकर आती। इंग्लैंड तो मैं हो ही आई थी। मेरा मन करने लगा कि मैं भी अमेरिका होकर आऊँ। मैंने उनसे वीज़े में आने वाली कठिनाइयों के बारे में बताया तो वह बोले कि यह कोई मसला नहीं है। जो मुझे बड़ा मसला लग रहा था, उसे उन्होंने यूँ छोटा बनाकर पेश किया जैसे यह कोई बच्चों का खेल हो। मुझे पता था कि अमेरिका का वीज़ा मिलना बहुत कठिन था। उन्होंने मुझे एक व्यक्ति के माध्यम से स्पांसर करवा दिया। यह व्यक्ति किसी गुरद्वारे का ग्रंथी था और उसने अपनी जिम्मेदारी पर अपना बैंक बैलेंस दिखाकर यह स्पांसरशिप भेजी थी। मेरे पास कालेज की पक्की नौकरी थी और इसके सबूत के तौर पर मैं सभी कागजात लेकर गई थी, प्रिंसीपल का पत्र भी साथ लगा हुआ था। मैंने वीज़ा के लिए आवदेन किया। मुझे वीज़ा मिल गया। मैं बहुत खुश थी। कालेज से मैंने छुट्टी ले ली और अमेरिका जाने वाले हवाई जहाज में जा बैठी।

मैं न्यूयॉर्क के एक एयरपोर्ट पर पहुँच गई। उधर से भाई आनंद साहब, वह ग्रंथी, एक बड़े स्मार्ट से सरदार जी मुझे लेने आए हुए थे। मेरे रहने का प्रबंध भी उस सरदार के घर में किया हुआ था। यह सरदार बहुत बड़ा व्यापारी था और वह एक अंग्रेज स्त्री से ब्याहा हुआ था। उसका घर बहुत बड़ा था। इतना बड़ा घर, पर घर में बच्चा कोई नहीं था। वह पति पत्नी मुझे बहुत प्यार करने लगे। मुझे वहाँ रहना बहुत अच्छा लगने लगा। ऐसा लगता था कि वह एक आम घर न होकर कोई परी महल हो। मुझे परी कथायें याद आने लगीं।

अभी कुछ ही दिन गुज़रे थे कि वह ग्रंथी जिसने मेरे लिए स्पांसरशिप भेजी थी, आया और मुझे संग चलने के लिए कहने लगा। असल में भाई आनंद सिंह ने उसको कोई आश्वासन दिया हुआ था। वह आदमी मेरे साथ विवाह करवाना चाहता था। इसलिए मेरे पर दबाव भी बनाने लगा। मैं अजीब दुविधा में फंस गई थी। मैं तो अमेरिका घूमने के लिए आई थी और यह ग्रंथी मुझे अपनी पत्नी बनाने पर तुला हुआ था। मैंने न कर दी तो वह ग्रंथी गुस्से में आने लगा। उसकी आँखों का रंग बदलने लगा। वह कई प्रकार की धमकियाँ भी देने लगा। मैं सोचने लगी कि अब क्या करूँ। उसी समय मुझे अंग्रेज स्त्री का ख़याल आया जिसके घर में मैं रहती थी। उसको मैंने सारी बात बताई। मैंने बताया कि मैं कालेज की प्रोफेसर हूँ और एक ग्रंथी के साथ कैसे विवाह करवा सकती हूँ। मेरा उद्देश्य तो अमेरिका घूमने का था, न कि विवाह करवाने का। अंग्रेज स्त्री मेरी बात समझने लगी और मेरे साथ खड़ी हो गई। अब मैं सोच रही थी कि आगे क्या किया जाए। भाई आनंद सिंह को मैंने स्पष्ट तौर पर मना कर दिया। सोचने लगी, वापस लौट जाऊँ या फिर क्या करूँ ? खै़र, मैं उस अंग्रेज स्त्री के घर में ही रह रही थी। मेरे पास कुछ साहित्यिक मित्रों के फोन नंबर थे। सोचते-सोचते मुझे रविंदर रवि का ख़याल आया। उसकी किताब ‘अघरवासी’ का मैंने ‘अक्स’ पत्रिका में रिव्यू भी किया था। मुझे उसका फोन नंबर मिल गया। मैंने फोन किया तो वह मिल गया। मैंने बताया कि मैं न्यूयॉर्क से बोल रही हूँ। उसने मुझे कैनेडा आने का निमंत्रण पत्र भिजवा दिया। अंग्रेज स्त्री जिसका नाम मैंने बलजीत कौर रखा हुआ था, के संग मैंने एक दिन न्यूयॉर्क घूमने का कार्यक्रम बनाया। वहीं से कैनेडा एम्बेसी जाकर वीज़ा ले आई और इस प्रकार कैनेडा जाने की टिकट बुक करवा ली तथा तय तारीख़ के अनुसार मैं हवाई जहाज में चढ़ गई। उस समय तो मैंने स्थिति के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा था, पर जहाज में बैठने के बाद जैसे-जैसे मैं इस बारे में सोच रही थी, मारे डर के मेरी टांगें काँपने लगी थीं। यदि वह ग्रंथी मुझे किसी तरह गुरद्वारे या कहीं अन्य जगह ले जाता तो मैं क्या कर सकती थी। बेशक वह मेरे साथ जबरन विवाह ही करवा लेता। जहाज में बैठी मैं सोच रही थी कि जान बची और लाखों पाए !

(जारी…)