बुरी औरत हूँ मैं - 4 - अंतिम भाग

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बुरी औरत हूँ मैं (4) अब जरूरत थी एक सिरा पकड़ने की. पहले नौकरी की व्यवस्था करनी जरूरी थी इसलिए अपनी पुरानी कम्पनी में ही जाकर दरख्वास्त लगाई तो उन्होंने हाथों हाथ मुझे ले लिया शायद मेरी किस्मत के खुदा को मुझ पर रहम आना शुरू हो गया था. ज़िन्दगी एक ढर्रे पर जब चलने लगी तो खुद को व्यस्त रखने को सामाजिक संस्थाओं से जुड़ गया. दिन कंपनी में और शाम वहां. अब सुबह शाम की व्यस्तता में मैं शमीना को एक हद तक भूल चूका था. यूँ भी ज़िन्दगी में करने को कुछ बचा नहीं था. कुछ मित्र