मेरी दस चुनिंदा लघुकथाएं

  • 8.5k
  • 1.7k

#लोकतंत्र बूढ़ा सोमर बड़ी कठिनाई से अपनी झोपड़ी के देहरी तक आ सका। एक मिनट की भी देर होने पर वह रास्ते में ही बेहोश हो सकता था। बाबू साहब के खेतों में कभी दिन-दिन भर काम करने वाले सोमर के जर्जर शरीर में अब चार कदम चलने की भी शक्ति नहीं बची थी। आहट पाकर हुक्का गुड़गुड़ाती हुई बुढ़िया बाहर आयी। देहरी पर उसका मरद बैठा हाँफ रहा था। वह उसे सहारा देकर खाट पर सुलाती हुई बिगड़ने लगी- मैं पहिले ही कहत रह्यो कि इ कलमुंहन के बात पर मत जाओ। भला देखौ तो कैसे बुढ़ऊ को अकेला