फरेब - 9

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आज वृंदा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। वह उछलती कूदती हुई, आश्रम से बहार निकल के सीधा घर की ओर चली जा रही है। होठों पे एक हसीन गाना गुनगुना रहा है। सुर बैशक अच्छा नहीं है, पर भाव पुरी तरह से भरपूर है। और बोल है, हे जी, कैशरीया बालमजी आवो नी, पधारो मारो घेर। तभी सुखी धरती पर, उड़ती डमरी धूल के बीच उछलते कदम एकाएक रुके। सामने देखा, तो खुदीराम खड़ा है। एकदम मारवाड़ी आदमी, आज उसकी बड़ी मूंछे किसी डाकू की मूंछ की भाती लंबी और डरावनी लग रही थी। जीनपे