अखिलेश्वर बाबू

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वह सुनसान और उजड़ा हुआ सा इलाका था। करीब से करीब का गांव भी वहां से तीन चार किलोमीटर दूर था। रास्ता,सड़क कहीं कुछ नहीं, झाड़ झंकाड़, धूल धक्कड़, तीखी और तल्ख़ धूप, सीधे सूरज की। छांव के लिए कुछ नहीं। रेतीला मैदान, कहीं कहीं टीले टापरे । रेगिस्तान में भूले बिसरे दिख जाने वाले कंटीले झाड़ नुमा एकाध पेड़ और छितरी हुई ऐसी ही झाड़ियां,वो भी कहीं कहीं। पानी का दूर दूर तक नामो निशान नहीं।एक ओर किनारे पर पहाड़ी सा दिखने वाला भाग,और करीब ही पथरीली जमीन का टुकड़ा। आसपास किसी कच्ची बस्ती के भी दर्शन दुर्लभ। हवा