स्वर्णिम भारत की और......

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कठिन समय है, मानवीय संवेदनाएँ काँच की तरह होती है, कब टूट जाये , पता ही नहीं लगता।मनोवैज्ञानिकों का कहना कि आज जो परिदृश्य है, उसमें आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक ताना - बाना कहीं न कहीं छिन्न - भिन्न हो रहा है, जिससे लोग भयभीत हैं । *मेरा मानना है कि जैसे गुलेल से पत्थर छोड़ते हुए उसे अपनी ओर खींचते हैं, बंदूक से गोली के लिए ट्रिगर बैक किया जाता है, तीर से कमान को छोड़ते हुए धनुष में प्रत्यञ्चा पीछे खींचते है , उसी प्रकार ईश्वर हमें पीछे खींच रहा है और जब छोड़ेगा तो हम सफलता की नई ऊंचाई