सीता: एक नारी - 4

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सीता: एक नारी ॥चतुर्थ सर्ग॥ सहकर थपेड़े अंधड़ों के अनगिनत रहता खड़ा खंडित न होता काल से, बल प्रेम में होता बड़ा पहले मिलन पर प्रीति की जो अंकुरित थी वह लता-लहरा उठी पा विपिन में सानिघ्य-जल की प्रचुरता सिंचित हुई संपृक्त दोनों के हृदय-अनुभूति से बढ़ने लगी थी नित्य-प्रति लगकर मृदुल उर-भीति से लेकिन प्रदाहित वात से थी समय के मुरझा गई पहले हरण फिर सति-परीक्षा, नित्य विपदाएँ नई विच्छोह के बीते दिवस, हिय-गात अपने फिर मिले अनुकूलता पाकर पुनः उसमें नए पल्लव खिले फिर प्रस्फुटित होकर कली थी एक मुस्काने लगी अनुपम, अलौकिक गंध से तन-प्राण महकाने लगी आयाम यह बिल्कुल नया मेरे लिए व्यक्तित्व का था कल्पना से