संतोष

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संतोष अन्नदा पाटनी दरवाज़े की घंटी बजी, देखा एक नवयुवती खड़ी थी । माँग में सिंदूर, माथे पर बड़ी लाल बिंदी, होंठों पर लाली, कान में सोने के झुमके, सोने का नेकलेस, सिल्क की साड़ी और पैरों में सैंडल । मुझे ठिठकते देख वह बोली," आंटी नहीं पहचाना, मैं हूँ उषा ।” क्या उषा, उषा भटनागर ?" मैंने आश्चर्य से पूछा । “हाँ आंटी ।" अरे यह वही उषा थी रूखे बालवाली, सस्ते मुसे हए सलवार क़मीज़ पहने, जो प्लास्टिक की चप्पल फटकाती हुई आती थी । उसके इस नए रूप को देख कर ख़ुशी भी हुई औरअचरज भी ।