मानसून की रात..

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भादों का महीना था और इतने घने बादल छाए हुए थे कि दोपहर में ही ऐसा लगता था मानो रात हो गई हो। घने काले बादल और उसपर से कड़कड़ाती हुई बिजली की चमक रह रह कर हरिराम और सुमति के सीने की धड़कनों को बढ़ा देती थी....छोटा सा बांस की खपच्चियों का मकान और ऊपर लाल खपरैल जिसमें जगह जगह कवेलू के छेदो से गरीबी झांक रही थी। चैत बैसाख में तो जैसे तैसे गुजारा कर लिया मगर भादों के गहरे बादलों में भरी विराट जल संपदा को अपने ऊपर झेल लेने की ताकत के आगे उस यादों के