दो रोटियां

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सुधा रोज उस भिखारी को देखती थी। देखने मे ढीला-ढाला, बढ़ी हुई दाढ़ी, बेतरतीब बाल। आमतौर पर कोई उस पर सरसरी तौर पर भी नजर डालना पसंद नहीं करता था। पर पता नही क्यों, सुधा की नजरें उस पर चली ही जाती थीं। कारण था, उस भिखारी का समय का पाबंद होना। सुधा ठीक आठ बजे मेट्रो स्टेशन पहुंचती थी और वह उसे मेट्रो के द्वार पर निर्लिप्त भाव में बैठा मिलता था। वह हाथ नहीं फैलाता था, बस टुकुर टुकुर आने-जाने वाले को देखता रहता था। जिसकी नजर उससे मिलती, वह उसकी हालत देखकर कुछ न कुछ देकर ही