उनींदा सा एक दिन

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सुकेश जब चार दिनों बाद घर पहुंचा तो वह दिन समाप्त हो चुके थे, रुई से हल्के दिन... उन चार दिनों के बाद उसके मन में घर पहुंचने की कोई ललक नहीं बची थी, वह बस पहुंचना चाहता था क्योंकि उसे सोना था अपने बिस्तर पर जी भर कर सोना चाहता था वह। वहां पहुंचकर उसे किसी से नहीं मिलना था अपने बिस्तर के सिवा, लेकिन वह ऐसे कहां पहुंच सकता था अब उसे यहीं रहना होगा, यही सोचते हुए वह औंधे मुंह बिस्तर में जा गड़ा धप्प...। बिस्तर पर पड़े-पड़े ना जाने कब उसकी आंखों में नींद की छाया