खानगी

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मैं नहीं जानती जवाहर के संग रहा वह प्रसंग मात्र एक प्रपंच था अथवा सम्मोहन किंतु यह जरूर कह सकती हूँ स्नातकोत्तर की मेरी पढ़ाई में उसने न केवल साझा ही लगाया था वरन् संकीर्ण मेरी दृष्टि को एक नया विस्तार भी दिया था । सन् 1959 का वह जवाहर आज भी मेरे सामने आन खड़ा होता है । जब-जब जहाँ-तहाँ अपने उस तैल-चित्र के साथ जो उसने खुद अपने हाथों से तैयार किया था । हम एम.ए. प्रथम वर्ष के वनशिष्यों की वेलकम पार्टी के लिए एम.ए. द्वितीय वर्ष की अपनी जमात की ओर से । उस तैल-चित्र में