संतुष्टि

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एक ढलती शाम। आती-जाती मोटरगाड़ियों व पैदल चलते लोगों के कोलाहल के बीच वह सड़क के किनारे खड़ी अपना ग्राहक तलाश रही थी। यह चढ़ती महंगाई की मार थी या उसकी ढलती जवानी का असर, जिससे पतझड़ के पत्तों के समान उसके कस्टमर छिटककर उससे दूर जाने लगे थे तभी तो आज सुबह से उसके लाख रिझाने के बावजूद भी एक भी ग्राहक उसकी तरफ आकर्षित नहीं हुआ। “साब, चलता है क्या! चलो न...सही रेट लगा देगी मैं! दस मिनट में तुम्हारा सारा थकान न मिटा दिया, तो मेरे इच नाम पे कुत्ता पाल लेना!!” अपने अक्खड़ अंदाज़ से होठों