अपाहिज

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पिछले कुछ सालों में उसकी उम्र ने कुछ ज़्यादा ही रफ़्तार से फासले तय किए हैं। सब कुछ ऐसे गुजरता चला गया है कि जैसे समय बहुत ही कम हो और होनी की घटना - श्रृंखलाएं बहुत अधिक। इसीलिए हादसों के दरम्यान अंतराल कम होता चला गया, और वह भौंचक खड़ा हुआ देखता भर रहा। होनी की इस हड़बड़ी में फिर अनहोनी का दख़ल, बिखर कर रह गया वह। जूझने के सारे हौसले, सारी हिम्मतें चुकने लगे और उसे हारने की आदत होती चली गई। बाद में तो वह हारने का ही आदी रह गया। जीतना जैसे उसकी परिधि से