आँख की पुतली

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’’कैसे हैं, बाबूजी ?’’ बुध के बुध की शाम वृंदा का सात, सवा-सात के बीच फोन आना तय रहता है। ’’तुम्हें एक चिट्ठी लिखी है।’’ तोते की तरह फस्र्ट क्लास बोलने की बजाय उस बुध को मैंने दूसरा जवाब दिया। अपने बेटे राजेश का घर अब मैं छोड़ देना चाहता था। फौरन। ’’क्यों ?’’ वंृदा की आवाज़ रूँध गई, ’’सब ठीक नहीं क्या ?’’ ’’मेरी यह चिट्ठी पढ़ने के बाद तुम मुझे फिर फोन करना।’’ वृंदा के फोन के समय मेरे हाथ में हैंड-सेट थमाकर राजेश की पत्नी रेणु उधर टेलीफोन की मुख्य लाइन पर जाकर हमारी बातचीत की कनसुई