ज्वार

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’’जबरदस्ती है कोई ?’’ बाथरूम से तृप्ति के बड़बड़ाने की आवाज आई।  सुनी मैंने अनसुनी रहने दी।  ’’जबरदस्ती है कोई ?’’ उसकी आवाज तेज हो ली । ’’जबरदस्ती भी कैसी ? घोर, घनघोर जबरदस्ती।’’  ’’चुप हो जा......’’ अपने बिस्तर से उठकर मैं बाथरूम में चला गया।  बाथरूम की दीवार के दूसरी तरफ बेटे और बहू का कमरा था।  ’’जबरदस्ती इतनी ठीक नहीं है.....ठीक नहीं है.....।’’ उत्तेजना में तृप्ति अकसर अपने वाक्यों के अंतिम अंश दोहराने लगती- ’’बात आपकी मैं नहीं मानती.....नहीं मानती मैं....नहीं मानूँगी मैं....।’’  ’’पापा !’’ बेटे ने दरवाजे पर दस्तक दी। उसका आदेश रहता कि रात में हम