कभी कुछ तो कहते?

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कभी, कुछ तो कहते ? कहानी/शरोवन *** ‘सुधा आदेश की इस हरकत को चुपचाप निहारती, देखती, सोचती और बाद में अकारण ही गंभीर भी हो जाती। नहीं समझ पाती कि, यह उसके लिये कोई सज़ा थी? किसी बिगड़े हुये स्नेह संबन्धों का कोई तकाजा अथवा मन के अन्दर ही अन्दर चुपचाप गलने, सुलगने और परेशान होने की उसकी अपनी कोई ख्वाईश थी? किसी से कोई भी प्यार की हसरत नहीं, वादा नहीं, लेकिन फिर भी किसी के आने का इंतज़ार, केवल एक बार देखने के लिये मोहताज़, बेकरार आंखें? यह सब क्यों हो रहा था? सुधा कुछ भी नहीं समझ