हां, तो थाम कर ज़िन्दगी का हाथ अपनी ज़िंदगी हौले - हौले अपने पग धरते निकल पड़ी थी | राहें हर ओर अपनी बाहें फैलाए हुए बुला रही थीं तो अजनबी लोगों और परिस्थितियों से जूझने में आत्मविश्वास परीक्षा लेने को तत्पर था | मुझे पता नहीं था कि अब पढाई के बाद किन- किन दौर से गुज़रना होगा, कितनी बार सूखे पत्तों सा बिखरना भी होगा ! कभी ठहराव सी लगेगी ज़िन्दगी तो कभी अभाव सी | लेकिन अपने शहर के साहित्यिक कोहिनूर फि़राक़ साहब ने भी क्या खूब कहा है – “ ये माना ज़िन्दगी है चार दिन