वहाँ दिखा—रुखसाना का चेहरा।लेकिन ये कोई सपना या वहम नहीं था। ये एक पुरानी फिल्म रील जैसी दिख रही थी, जो किसी छिपे मैकेनिज्म से शुरू हो गई थी।वो देख रहा था—रुखसाना को सज़ा दी जा रही थी। उस पर इल्ज़ाम था—बेवफाई का, राज़ खोलने का, गद्दारी का। लेकिन जिसने ये सज़ा दी थी, वो कोई और नहीं—आगाज़ ख़ान था।अपूर्व ठिठक गया।"नहीं... ये मैं नहीं था...!"पर हर फ्रेम, हर चीख़, हर आँसू उसे उसी अतीत में खींच रहा था।और आखिरी दृश्य में—आग में जलती हुई को उसी हवेली के तहखाने में बंद किया जाता दिखाया गया... एक दरवाज़े के पीछे, जिस पर लिखा