ढिबरी

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ढिबरी खटिया पर पड़े—पड़े माँ को झपकी आ गयी थी । उनकी सूनी—सपाट आँखों के कपाट अचानक बन्द हो गये थे । मगर खर्राटों के मध्य भी कभी—कभार उनकी दर्दीली कराह पूफट ही पड़ती थी । चित लेटी माँ का मुँह खुला था और लार की दो चार कतारें मुँह से होती हुई गरदन के रास्ते बह रही थीं । वह कबाड़खाने जैसा कमरा कपफ से भर आया था । उसे भी घिन आ रही थी, मगर करे भी तो क्या ? खटिया के पास ओखली पर रखी ढिबरी का तेल पेंदी तक पहुँच गया था । वह अब बुझने