Oraang Utaang

  • 4.3k
  • 857

कहानी औरांग उटांग धीरेन्द्र अस्थाना यह तो वह समय था न, जब आप दौड़ना छोड़ चुके होते हैं। तो फिर? मैं सोच रहा हूं और दौड़ रहा हूं, एक द्वार से दूसरे द्वार तक। लेकिन आश्चर्य कि हर द्वार जैसे मेरे ही लिए बंद। हर दुःस्वप्न जैसे मेरे ही लिए छोड़ दिया गया। घृणा और दुश्मनी का एक—एक कतरा जैसे मेरे ही विरुद्ध तना हुआ। किनाराकशी की हर मुद्रा जैसे मेरे ही खाते में। यह तो घटना—विहीन, उत्सुकता से खाली और उबा देनेवाली शांत—सी जीवन—स्थितियों वाला समय था न। तो फिर? तो फिर? एक चीखता हुआ सा आश्चर्य मेरी चेतना