गाड़ी फिर रुक गयी है। बाहर स्टेशन नहीं दीख रहा। अंधेरा कुछ अधिक ही है-बाहर भी और भीतर भी। कुछ भी सुझायी नहीं दे रहा। राजू, नीलम, पिताजी, माँ, बांद्रा, चाँदनी चौक, दिल्ली, बंबई -सब एक फ़िल्म-से बन गये हैं। गाड़ी के अंधेरे में यह फिल्म सुचारु रूप से जारी है। अंधेरे में भी वह लड़का मुझे बिल्लीनुमा ऑंखों से घूर रह है। बिलकुल झपटने को तैयार है अपने शिकार पर। एयरलाइन में ऐसी बहुत-सी ऑंखों से मैं परिचित हूँ...जो कि मौका मिलने ही अपने शिकार को शिकंजे में जकड़ लेती हैं। मैं भी उनके लिए एक नया बकरा ही थी। कोई मेरी ऑंखों की प्रशंसा करता, तो कोई किसी-न-किसी बहाने छूने की चेष्टा करता। मैं सोचती, कितना कृत्रिम है यहाँ का वातावरण! किसी में कहीं भी सहजता नहीं। बनावट-ही-बनावट है। इतनी ठसाठस भरी हुई गाड़ी में अकेलापन मुझे बुरी तरह से कचोट रहा है। कभी भीड़ से भरी बंबई नगरी में भी अकेलापन मुझे यूँ ही जकड़ लेता था।