द्वारावती

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उस क्षण जो उद्विग्न मन से भरे थे उस में एक था अरबी समुद्र, दूसरा था पिछली रात्रि का चन्द्र और तीसरा था एक युवक। समुद्र इतना अशांत था कि वह अपने अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहता हो ऐसे किनारे की तरफ भाग रहा था। वह चाहता था कि वह रिक्त हो जाय। अपने भीतर का सारा खारापन नष्ट कर दें। अत: समुद्र की तरंगें अविरत रूप से किनारे पर आती रहती थी। कुछ तरंगें किनारे को छूकर लौट जाती थी, कुछ तरंगें वहीं स्वयं को समर्पित कर देती थी। समुद्र अशांत था किन्तु उसकी ध्वनि से वह लयबध्ध मधुर संगीत उत्पन्न कर रहा था। पिछली रात्रि का चंद्रमा ! अपने भीतर कुछ लेकर चल रहा था। वह उतावला था, बावरा था। उसे शीघ्रता थी अस्त हो जाने की, गगन से पलायन हो जाने की। जाने उनके मन में क्या था? चन्द्र के मन को छोड़ो, मनुष्य स्वयं अपने मन को भी नहीं जान सका। अपने मन में कोई पीड़ा, कोई जिज्ञासा, कोई उत्कंठा लिए एक युवक अरबी समुद्र के सन्मुख बैठा था। उसे ज्ञात नहीं था कि वह यहाँ तक जिस कारण से आ चुका था उस कारण का कोई अर्थ भी था अथवा नहीं। श्वेत चाँदनी में समुद्र की तरंगे अधिक श्वेत लग रही थी। जैसे वह पानी चन्द्र के लिए कोई दर्पण हो और उस में चन्द्र अपना प्रतिबिंब देख रहा हो।

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द्वारावती - 1

उस क्षण जो उद्विग्न मन से भरे थे उस में एक था अरबी समुद्र, दूसरा था पिछली रात्रि का और तीसरा था एक युवक। समुद्र इतना अशांत था कि वह अपने अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहता हो ऐसे किनारे की तरफ भाग रहा था। वह चाहता था कि वह रिक्त हो जाय। अपने भीतर का सारा खारापन नष्ट कर दें। अत: समुद्र की तरंगें अविरत रूप से किनारे पर आती रहती थी। कुछ तरंगें किनारे को छूकर लौट जाती थी, कुछ तरंगें वहीं स्वयं को समर्पित कर देती थी। समुद्र अशांत था किन्तु उसकी ध्वनि से वह ...Read More

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द्वारावती - 2

समुद्र की शीतल वायु ने थके यात्रिक को गहन निंद्रा में डाल दिया, उत्सव सो गया। समय की कुछ तरंगे बही होगी तब दूर किसी मन्दिर से घन्टनाद हुआ। उत्सव उस नाद से जाग गया। सूरज अभी भी निकला नहीं था। अन्धकार अपने अस्तित्व के अन्त को देख रहा था किन्तु विवश था। प्रकाश के हाथों उसे परास्त होना था। घन्टनाद पुन: सुनाई दिया। धुंधले से प्रकाश मे उत्सव ने दूर समुद्र के भीतर किसी मन्दिर की आकृति का अनुभव किया। ‘मुझे किसी मन्दिर में नहीं जाना है। मुझे इन मंदिरों से अत्यंत दूर रहना होगा।’ वह मन्दिर से ...Read More

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द्वारावती - 3

3 "7 सितंबर 1965 की रात्री। द्वारिका के मंदिर को देख रहे हो? वहाँ दूर जो मंदिर दिख रहा वही।” भीड़ के भीतर से यह ध्वनि आ रही थी। उत्सव ने उसे सुना। वह उस भीड़ की चेष्टा को देखने लगा, उस ध्वनि को सुनने लगा। भीड़ के बिखर जा“7ने की प्रतीक्षा करने लगा। भीड़ ने उस मंदिर की तरफ देखा। वह ध्वनि आगे कह रही थी - “हाँ, उसी मंदिर पर पाकिस्तान की सेना ने अविरत गोलाबारी की थी उस रात्री को। उसका आक्रमण अत्यंत भारी था। क्षण प्रतिक्षण गोलाबारी हो रही थी। उसका लक्ष्य था मंदिर को ...Read More

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द्वारावती - 4

4उत्सव भागता रहा, भागता रहा। वह उसी दिशा में दौड़ रहा था जिस दिशा से वह आया था। वह रहा। सोचता रहा –‘क्यों भाग रहा हूँ मैं?’किन्तु उसे कोई उत्तर नहीं मिला। बस वह भागता रहा। वह उसी स्थान पर आ गया जहां उसे बाबा मिले थे। वह किनारे कि रेत पर बैठ गया। कुछ क्षण के पश्चात वह रेत पर ही सो गया। शीतल हवा ने उसे निंद्राधिन कर दिया। सूरज खूब चढ़ गया। उसकी तीव्र किरणों से उत्सव जाग गया। तीव्र धूप से बचने के लिए कोई स्थान ढूँढने लगा। उसने दूर किसी टूटे हुए मकान को ...Read More

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द्वारावती - 5

5सूरज अभी मध्य आकाश से दूर था। सूरज की किरनें अधिक तीव्र हो चुकी थी। किन्तु समुद्र से आती की शीतल लहरें धूप को भी शीतल कर रही थी। उत्सव गुल के घर के सन्मुख आ गया। भीतर प्रवेश करने से पहले वह रुक गया। घर को देखने लगा। एक छोटा सा भवन, एक ही कक्ष का। सामने खुल्ला सा विशाल आँगन। समीप ही अरबी समुद्र। दो चार शिलाएँ जो समुद्र की तरफ मुख कर खड़ी थी। आँगन में कोई नहीं था। पहेली बार आया था तब तो भीड़ थी। अभी यहाँ कोई नहीं है। ‘पंडित गुल तो होगी ...Read More

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द्वारावती - 6

6गुल ने उसे जाते देखा। वह सो गया था। शांत हो गया था। सोते हुए उत्सव के मुख पर भाव नहीं थे। कोई चिंता नहीं थी। पूर्ण रूप से सौम्यता थी। ‘कितना अशांत था, व्याकुल था यह युवक! और अब निंद्रा के अधीन कितना शांत!’‘क्या कारण होगा उसकी अशांति का? क्यों वह मुझसे मिलना चाहता था?’‘चाहता था? था नहीं, है। वह तुम्हें मिला ही कहाँ है? बस आया, भोजन किया और सो गया। वह अभी भी तुम्हें मिलना चाहता है, गुल।’ ‘संभव है कि पेट की भूख शांत होने के पश्चात वह तुम्हें मिले ही नहीं। तुम्हें ही भूल ...Read More

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द्वारावती - 7

7गुल समुद्र को देख रह थी। समुद्र की ध्वनि के उपरांत समग्र तट की रात्री नीरव शांति से ग्रस्त किन्तु गुल का मन अशांत था। वह विचारों में मग्न थी।‘वह रात्री भोजन के लिए भी नहीं आया। समुद्र के तट पर सोते हुए महादेव के मंदिर तक गया, आरती के लिए घंट बजाया और चल दिया। मैंने उसे पुकारा भी था पर वह नहीं रुका। एक बार पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।’ ‘हो सकता है उसने तुम्हारे शब्द सुने ही ना हो।’ ‘तो क्या? यदि उसे मुझ से काम था, मेरा नाम लेकर आया था तो मुझ से मिलकर ...Read More

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द्वारावती - 8

महादेव की आरती में घंटनाद करने के पश्चात उत्सव वहाँ से चला गया था। समुद्र के मार्ग पर चलते वह उसी स्थान पर आ गया जहां उसे बाबा मिले थे। वह एक स्थान पर बैठ गया। सामने असीम समुद्र तथा उनकी लहरें। एक लयबध्ध ध्वनि उत्सव को सुनाई दे रही थी।‘वह कहती थी कि इस ध्वनि में कृष्ण की बांसुरी की मधुर धुन है। किन्तु मुझे तो लहरों की ध्वनि ही सुनाई दे रही है। लगता है पंडित गुल असत्य कह रही हो अथवा भ्रमित कर रही हो।’ ‘इसी भ्रम के कारण ही तो तुम उसे छोड़ चले आए।’ ...Read More

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द्वारावती - 9

9संध्या हो चुकी थी। महादेव जी की आरती करने के लिए गुल मंदिर जा चुकी थी। गुल ने घंटनाद पुजारी जी ने आरती की। महादेव जी को भोग लगाया । प्रसाद लेकर गुल मंदिर से बाहर निकली ही थी कि उसके सम्मुख प्रसाद के लिए बढ़ा हुआ एक हाथ आ गया। गुल ने उस हाथ में प्रसाद रख दिया, उस हाथ के मुख को देखा। वह उत्सव था। दोनों की द्रष्टि मिली। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। गुल चलने लगी, उत्सव उसके पीछे चलने लगा। दोनों गुल के घर आ गए। “खाना खाओगे?” गुल ने पूछा। “नहीं।”“क्यों?”“यदि ...Read More

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द्वारावती - 10

10 अरबी समुद्र रात्री के आलिंगन में आ गया। द्वारका नगर की घड़ी ने आठबार शंखनाद किया। समुद्र तट शांति मेँ वह नाद स्पष्ट सुनाई दिया।उत्सव ने आज प्रथम बार उस शंखनाद को ध्यान से सुना। उसे उस नाद मेंकृष्ण के पांचजन्य का शंखनाद सुनाई दिया। उसे कुरुक्षेत्र याद आ गया।‘कैसा विराट स्वरूप होगा उस रणभूमि में कृष्ण का?’ उत्सव ने मन ही मनकृष्ण के विराट स्वरूप की कल्पना की, उसे प्रणाम किया।गुल ने उस ध्वनि को सुना। स्वयं को भूतकाल से वर्तमान में खींचा। उत्सवको देखा। वह हाथ जोड़े खड़ा था।“उत्सव, तुम किसे प्रणाम कर रहे हो? यहाँ ...Read More

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द्वारावती - 11

11 व्यतीत होते समय के साथ घड़ी में शंखनाद होता रहा ….नौ, दस, ग्यारह, बारह….. एक, दो, तीन, चार….. शंखनाद की ध्वनि ने गुल को जागृत कर दिया। वह किसी समाधि सेजागी, उठी। उसकी दृष्टि उत्सव पर पड़ी। वह भी वहीं बैठा था, रात्रि भर, निश्चल, स्थिर। वह भी जैसे किसी समाधि में था।उत्सव की स्थिति में कोई भी व्यवधान डाले बिना ही गुल वहाँ से उठी, नित्य कर्म करने लगी, समुद्र में स्नान आदि कर्म कर लौट आइ।उत्सव अभी भी वहीं था, किंतु निंद्राधिन था। जब वह जागा तब सूरजअपनी यात्रा के कई पड़ाव पार कर चुका था।“गुल, ...Read More