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द्वारावती - 5

5

सूरज अभी मध्य आकाश से दूर था। सूरज की किरनें अधिक तीव्र हो चुकी थी। किन्तु समुद्र से आती हवा की शीतल लहरें धूप को भी शीतल कर रही थी। उत्सव गुल के घर के सन्मुख आ गया। भीतर प्रवेश करने से पहले वह रुक गया। घर को देखने लगा।
एक छोटा सा भवन, एक ही कक्ष का। सामने खुल्ला सा विशाल आँगन। समीप ही अरबी समुद्र। दो चार शिलाएँ जो समुद्र की तरफ मुख कर खड़ी थी। आँगन में कोई नहीं था।
पहेली बार आया था तब तो भीड़ थी। अभी यहाँ कोई नहीं है।
‘पंडित गुल तो होगी न?’
दुविधा को लिए वह घर की तरफ बढ़ा। वहाँ कोई नहीं था। उसने सभी दिशाओं में तथा कोनों में
खोजा। वहाँ कोई नहीं मिला।
‘कहीं गई होगी, कुछ ही समय में वह आ जाएगी। मुझे प्रतीक्षा करनी होगी। मैं इस शीला पर बैठ जाता हूँ।’
‘किन्तु वह नहीं आई तो?’
‘ऐसा नहीं हो सकता। वह आएगी, अवश्य ही आएगी।’
उत्सव एक शीला पर बैठ गया। सामने लहराते समुद्र को देखता रहा। विचारों में विचरता रहा।
समय धीरे धीरे प्रवाहित होता रहा।
दूर कहीं कोई घंटनाद हुआ। उत्सव का ध्यान भंग हुआ। उसने उस दिशा में देखा। समुद्र के भीतर एक ऊंची विशाल शीला पर एक छोटा सा मंदिर तथा उसकी लहराती धजा द्रष्टिगोचर हुई। घंटनाद उसी मंदिर से आ रहा था।
घंटनाद मधुर था। आँखें बंध कर उत्सव उसे सुनता रहा। जैसे जैसे वह घंटनाद उत्सव के कानों में पड़ता रहा, उसका मन प्रसन्न होता गया। मन शांत हो गया।
घंटनाद बंध हो गया किन्तु उत्सव ने आँखें नहीं खोली। उस नाद के प्रतिनाद को वह अनुभव करता रहा।
‘मन करता है कि इस नाद को सुनता रहूँ, सदा के लिए। मैं आँखें बंध ही रखूँ, इसे कभी ना खोलुं।’
“आँखें खोलो प्रवासी। भगवान शिव का प्रसाद ग्रहण करो।” एक मधुर सी, परिचित सी ध्वनि उत्सव के कानों में पड़ी। उत्सव ने उस ध्वनि को भ्रम माना। आँखें नहीं खोली।
“हे प्रवासी, समाधी से जागो। आँखें खोलो।” वही परिचित ध्वनि सुनाई दी।
इस बार उत्सव उस ध्वनि को टाल ना सका। उसने आँखें खोल दी।
सन्मुख उसके पंडीत गुल खड़ी थी, हाथ में कोई पात्र लिए। मुख पर दिव्य शांति थी। अधरों पर वही स्मित था तो आँखों में थी करुणा।
इस बार गुल को देख उत्सव विचलित नहीं हुआ। उत्सव ने स्मित दिया। उस स्मित में सौम्यता थी। गुल ने हाथ के पात्र में से एक पुष्प निकाला, उसे उत्सव की तरफ बढ़ा दिया। उत्सव ने उसे स्वीकार किया। अपनी आँखों से लगाया। पुष्प पानी से भीगा हुआ था, उत्सव की आँखें भी पानी के स्पर्श से भीग गई।
एक अवधि के पश्चात उत्सव की आँखों ने पानी का स्पर्श अनुभव किया था। वह स्पर्श उसे मनभावन लगा। उसने दूसरी बार पुष्प को आँखों से लगाया। वह प्रसन्न हो गया।
“अब यह प्रसाद ग्रहण करो।” गुल ने उत्सव की तरफ प्रसाद धर दिया। उत्सव उसे देखता रहा।
“इसे ग्रहण करो।”
उत्सव ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बस देखता रहा।
“तुम कोई दुविधा में हो ऐसा लगता है।”
“हाँ।“ वह इतना ही बोल सका।
“कहो, क्या दुविधा है?”
“सुना है कि महादेव का प्रसाद ...।”
“नहीं लेना चाहिए, यही ना?”
“हाँ। यही तो सुनते आए हैं हम।”
“तुम सुनी सुनाई बातों पर अटक जाते हो और फिर भटक जाते हो। उसे ही तुम सत्य मान बैठते हो।” “तो क्या करता मैं?”
“सत्य क्या होता है? अन्यों से सुना होता है वह अथवा जिसे हमने स्वयं अपनी ही कसोटी पर परखा हो वह? यदि सत्य को जानना हो, समझना हो तथा उसे पकड़ना हो तो उसे अपने ही मापदण्डों से परखो। यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो तुम किसी और की बातों को ही सत्य समझ लेते हो और भटक जाते हो।” गुल ने अभी भी प्रसाद से भरा हाथ उत्सव की तरफ बढ़ाए रखा था।
उत्सव उस हाथ को देखता रहा, गुल की बातों को सुनता रहा।
“यदि तुम्हारे पास तुम्हारा अपना सत्य नहीं है तो इस क्षण मेरे सत्य को ग्रहण कर लो। इस प्रसाद को ग्रहण कर लो।” गुल ने कहा। उत्सव ने प्रसाद ग्रहण करने हेतु अनायास ही अपनी हथेली आगे बढ़ा दी।
गुल ने हथेली को देखा, अपने बढ़े हुए हाथ को प्रसाद दिये बिना ही खींच लिया। उत्सव ने गुल की तरफ देखा। उसकी आँखों में प्रश्न भी था, याचना भी थी।
“गंदी मैली हथेली में ईश्वर का प्रसाद लेना उचित नहीं। जाओ हथेली को धोकर आओ। ईश्वर भी स्वच्छता पसंद करता है।” गुल ने आदेश दिया। एक कोने पर रहे पानी के नल के तरफ संकेत किया।
उत्सव उठा, पानी से हाथ धोये। हथेलीयों से सारे मेल बह गए। आज दूसरी बार उसके तन को पानी का स्पर्श हुआ था। वह उस स्पर्श से रोमांचित हो गया।
“अब तो प्रसाद मिलेगा ना?” उत्सव ने स्वच्छ हथेली गुल की तरफ बढ़ा दी। गुल ने क्षणभर हथेली को देखा, पढ़ा और उस हथेली पर प्रसाद रख दिया। उत्सव उसे खा गया। उसने दूसरी बार हथेली बढ़ाई, गुल ने दूसरी बार प्रसाद दिया। वह प्रसन्न हो गया।
“और दूँ?” गुल ने पूछा।
“नहीं, इतना पर्याप्त है।”
“प्रवासी, पिछली बार भोजन कब किया था?”
“स्मरण नहीं रहा।”
“आज इच्छा है भोजन ग्रहण करने की?”
उत्सव ने कोई उत्तर नहीं दिया। गुल ने भोजन परोसा, उत्सव उसे खाने लगा। वह सारा भोजन खा गया, तृप्त हो गया।
“मुझ जैसे अज्ञात प्रवासी पर आपकी इतनी कृपा क्यों है, पंडित गुल?”
“इस संसार में कोई किसी से अज्ञात नहीं होता है। तुम भी नहीं।”
“किन्तु हम पहले कभी नहीं मिले।”
“मिलना नहीं हुआ वह भिन्न बात है। किन्तु इसी कारण तुम अज्ञात नहीं हो जाते। हमारा कोई न कोई संबंध समय के किसी काल खंड में रहा होगा। यही तो कारण है कि तुम आज मुझे मिले हो। बिना ऋणानुबंध के कोई किसी से नहीं मिलता।”
“वह तो ठीक है, किन्तु आपने भोजन नहीं किया। मैं ही सारा भोजन खा गया। कुछ भी तो नहीं शेष बचा। अब आप क्या खाएँगी?”
गुल ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल स्मित दिया। उस स्मित में कुछ तो था कि उत्सव ने आगे कोई बात नहीं की। गुल समीप एक शीला पर बैठ गई।
क्षण मौन में व्यतीत होने लगे। दोनों मौन थे। दोनों समुद्र की लहरों को देख रहे थे। दोनों के मन में भी लहरें उठ रही थी। दोनों एक दुसरे के शब्दों की प्रतीक्षा करने लगे, करते रहे। एक लंबे अंतराल तक कोई कुछ नहीं बोला। सूरज अब माथे पर आ गया था। दोनों वहीं बैठे रहे।
“प्रवासी, तुम एक लंबी यात्रा करते हुए यहाँ तक आए हो। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम कई दिवसों से, कई रात्रियों से सोये नहीं हो।” गुल ने मौन भंग किया।
“आपका अनुमान सत्य है।”
“तो तुम्हें विश्राम कर लेना चाहिए। आओ मैं तुम्हारे विश्राम का प्रबंध करती हूँ।”
“नहीं, मैं सोना नहीं चाहता।”
“क्यों?”
“क्यों कि मुझे नींद नहीं आती है।”
“ऐसा कैसे हो सकता है? आहार एवं निंद्रा तो मनुष्य कि स्वाभाविक क्रियायेँ है। कोई भी मानव इस बंधन से मुक्त नहीं।”
“मैं चाहुं तो भी मुझे नींद नहीं आती है।”
“ऐसी क्या विशेष बात है? ऐसा क्या कारण है?”
“कई दिनों से, कई रात्रियों से, नहीं, कई महीनों से कुछ उजाले हैं जो मेरे साथ चलते रहते हैं, थकते ही नहीं। आप ही कहो, उजालों में कोई कैसे सो सकता है?’
“उजालों से बचा भी जा सकता है। बस अपनी आँखें बंध कर लो।”
“आँखें बंध करते ही उजाले मेरे सामने आ जाते हैं। मैं उससे बचने का पूरा प्रयास करता हूँ किन्तु विफल हो जाता हूँ।”
“बंध आँखों के उजाले?” गुल ने पूछा।
“हाँ, वही।”
“अर्थात तुम किसी प्रश्न से पीड़ित हो। तुम कोई समस्या का समाधान खोज रहे हो। और वह तुम्हें नहीं मिल रहा।”
“आपका कहना उचित है।”
“यह सारे उजाले तब तक रहते हैं जब तक कोई थका हुआ मुसाफिर भूखा होता है। पेट भरते ही उजाले अद्रश्य हो जाते हैं। भूखे व्यक्ति को नींद नहीं आती कभी।”
“किन्तु मेरी ...। “
“देखो पथिक, अब तुम्हें विश्राम करना चाहिए।”
“मैं तो आप से, पंडित गुल से मिलने के लिए आया था। आपसे मिलने का मेरा प्रयोजन मेरे लिए भोजन जुटाना नहीं था। मुझे आप से ...।”
“हे यात्रिक, इस समय तुम्हें विश्राम की आवश्यकता है। जाओ कक्ष में जाकर थोड़ा विश्राम कर लो।” “किन्तु...।”
“ना तो मैं, ना तो तुम और ना ही यह स्थल, यह सागर और ना ही तुम्हारे प्रश्न, तुम्हारी बातें, इनमें से कोई यहाँ से भाग जाने वाला है। तुम निश्चिंत रहो। विश्राम के पश्चात हम बातें करेंगे।”
उत्सव के पास कोई शब्द नहीं रहे। वह उठा, सागर की तरफ बढ़ा तथा सागर के तट की रेत पर जाकर सो गया। क्षणभर में वह निंद्रा के अधीन था।
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