Dwaraavati - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

द्वारावती - 2

समुद्र की शीतल वायु ने थके यात्रिक को गहन निंद्रा में डाल दिया, उत्सव सो गया। समय की कुछ ही तरंगे बही होगी तब दूर किसी मन्दिर से घन्टनाद हुआ। उत्सव उस नाद से जाग गया। सूरज अभी भी निकला नहीं था। अन्धकार अपने अस्तित्व के अन्त को देख रहा था किन्तु विवश था। प्रकाश के हाथों उसे परास्त होना था।
घन्टनाद पुन: सुनाई दिया। धुंधले से प्रकाश मे उत्सव ने दूर समुद्र के भीतर किसी मन्दिर की आकृति का अनुभव किया।
‘मुझे किसी मन्दिर में नहीं जाना है। मुझे इन मंदिरों से अत्यंत दूर रहना होगा।’
वह मन्दिर से दूर जाते समुद्रमार्ग पर दक्षिण दिशा में चलने लगा।
घंटनाद कुछ समय तक चलता रहा। उत्सव भी चलता रहा। अब मंदिर पीछे छूटने लगा। घंटनाद बंध हो गया। पुन: समुद्र की ध्वनि अपना संगीत सुनाने लगी। उत्सव को यह ध्वनि कर्णप्रिय लगी। वह चलता रहा, संगीत सुनता रहा।
कुछ अन्य ध्वनि भी उत्सव के कानों पर पड़ने लगे। उसने प्रथम तो ध्यान ही नहीं दिया उन ध्वनि पर, वह तो बस समुद्र की मधुर ध्वनि को सुनता रहा। किन्तु धीरे धीरे वह अन्य ध्वनि की तीव्रता बढ़ने लगी। वह ध्वनि पर उत्सव को ध्यान देना पड़ा। उसने उन पर कान लगाये।
ध्वनि स्पष्ट होती गई।
ओहम सूर्याय नाम:,
ओहम मित्राय नम:
ओहम वरुणाय नम:
ओहम भार्गवाय नम: …

समूह गान में यह स्वर उत्सव का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे।
‘यह तो मंत्रोच्चार हो रहा है। अनेक ध्वनि एक साथ आ रहे हैं अर्थात अवश्य ही कोई बड़ी पुजा अर्चना हो रही होगी। मुझे उस पुजा में सम्मिलित होना चाहिए।’
‘नहीं, उत्सव। तुम मंदिरों तथा पुजाओं में तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर खोज चुके। कुछ भी तो हाथ नहीं लगा अब तक।’
‘किन्तु....।’
‘यदि तुम पुन: भटकना चाहो तो तुम्हारी इच्छा। किन्तु मुझे तुम्हारे इस भटकने में कोई रुचि नहीं है। तुम जाओ वहाँ। मैं तो चला...।’
उत्सव की परछाई चली गई। विवश होकर उत्सव भी समुद्र किनारे चलता रहा।
उसका मन अशांत था। चरण भी अशांत थे। वह समुद्र के किनारे पर चल रहा था। उसका मन भी चल रहा था। वह कुछ खोज रहा था। किसी बात पर वह व्याकुल था, व्यग्र था, चिंतित था, विचलित था।
वह चलता रहा। चलता ही गया। समय के एक बिन्दु पर वह अटका। किनारे से दूर जाकर वह बैठ गया। वह थक गया था, वह तृषातुर था। वह भूखा था। उसके शरीर को तृषा थी, भूख थी तो मन भी तृषा से पीड़ित था।
समुद्र की तरंगों की भांति उस के मन के भीतर उठ रही तरंगें भी शांत होने का नाम नहीं ले रही थी। समुद्र की तरंगें तो सुमधुर ध्वनि सुना रही थी किन्तु उत्सव के मन में उठ रही ध्वनि कर्कश थी। वह उसे शांत करने का पूरा प्रयास कर रहा था किन्तु वह भी समुद्र की तरंगों की भांति निश्चय कर चुकी थी की वह अविरत चलती रहेगी।
वह समुद्र को अनिमेष द्रष्टि से देख रहा था। देखते देखते वह थक गया। उसने समुद्र से द्रष्टि हटा ली। वह तट पर देखने लगा।
तट पर का द्रश्य भिन्न था। थोड़े ही अंतर पर कुछ कच्चे मकान थे। अनेक वस्तुएं मकान के आसपास बिखरी हुई पड़ी थी। समुद्र पवन उन वस्तुओं को अपने साथ उड़ा ले जाने का प्रयास कर रही थी। कुछ तो उड भी जाती थी। तट के समीप दो खंभों पर बंधी दोर थी। उस पर कुछ टंगा हुआ था, जैसे कुछ सुख रहा हो।
‘यह तो किसी मछुआरों का नगर सा लग रहा है। यहाँ तो मानव वस्ती हो सकती है।’
‘किन्तु कहीं कोई हलन चलन सा नहीं दिख रहा। सब कुछ पूर्णत: स्थिर सा दिख रहा है। कहीं यह नगर उजड़ तो नहीं गया?’
‘भरे से नगर भी वीरान हो जाते हैं।’
‘द्वारिका भी ऐसे ही नष्ट हो चुकी है, एक बार नहीं अनेकों बार। किन्तु पुन: बसी भी है। कोई तो बात है इस नगरी में। बार बार नष्ट होती रही, बार बार बसती रही है।’
‘ऐसी इस धरती को मेरा वंदन।’
उत्सव को अपने ही शब्दों से कुछ सांत्वना मिली। मन के अवसाद को उसने दूर करने का प्रयास किया। मन कुछ शांत भी हुआ। उसे यह शांति मनभावन लगी। एक लंबे अंतराल के पश्चात ऐसी शांति का अनुभव किया था उत्सव ने।
वह शांत बैठा रहा, समय की तरंगों को बहने दिया। प्रसन्न चित्त से वह समुद्र की तरंगों को देखता रहा। किन्तु यह प्रसन्नता अधिक समय तक नहीं टिकी। मन पुन: अनेक प्रश्नों से भर गया। वह पुन: व्यग्र हो गया।
वह खड़ा हुआ और कहीं जाने के लिए चलने ही वाला था कि उसके सामने एक व्यक्ति आ खड़ा हुआ।
‘कौन है यह? प्रथम द्रष्टि से तो यह कोई साधू-संत लग रहा है।’
उसने उसे अनदेखा कर दिया। वह चलने लगा।
“वत्स, क्षण भर रूक जाओ।” उस संत ने कहा।
उसके शब्दों में इतना माधुर्य था कि उत्सव उसे टाल नहीं सका। वह रुक गया। उसकी मुख प्रतिभा को देखता रहा। कोई आभा उस मुख पर चमक रही थी।
“आप कौन हो, बाबा?” उत्सव ने अनायास ही दो हाथ जोड़ दिये।
“तुम्हारा कल्याण हो, उत्सव।” बाबा ने कहा।
अपना नाम सुनकर उत्सव चौंक गया।
‘इसे मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ? मेरे इस नाम को तो मैं भी भूल चुका हूँ। मैंने किसी को बताया तक नहीं। तो इसे कैसे ...?’
“वत्स, तुम्हारे नाम के उपरांत तुम्हारे विषय में मुझे सब कुछ ज्ञात है।”
“वह कैसे? यह तो .... ।”
“इन सभी प्रश्नों के उत्तर से अधिक महत्वपूर्ण तुम्हारे प्रश्नों का समाधान है। तुम्हें उन पर ध्यान देना होगा।”
“किन्तु ..।”
“इसमें इतना विचलित होने वाली कोई बात नहीं है।” बाबा ने कहा।
“किन्तु बाबा.....।”
“वत्स तुम छोटी छोटी बातों पर विचलित हो जाते हो। यदि तुम्हें अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है तो धैर्य रखना होगा। विचलित होने से तो वह आज तक तुम्हारे हाथ नहीं आया।”
“तो आप जानते हो मेरे लक्ष्य के विषय में?”
“मुझे सब कुछ ज्ञात है, वत्स। तुम यहाँ किस प्रयोजन से आए हो? तुम्हारा लक्ष्य क्या है? तुम्हारे भीतर क्या प्रश्न चल रहे हैं? उन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए तुम कहाँ कहाँ भटके हो। अभी तक तुम्हें कोई समाधान नहीं मिला है। इन सभी बातों का मुझे ज्ञान है।”
“यदि आप सब कुछ जानते ही हो तो आपको यह भी ज्ञात ही होगा कि मेरे प्रश्नों के उत्तर कहाँ मिलेंगे, कब मिलेंगे? मीलेंगे भी अथवा नहीं? क्या मेरा यहाँ आना सार्थक होगा? अथवा मैं पुन: भटक जाऊंगा?”
“वत्स,शांत हो जाओ। तुम जिसे खोज रहे हो वह भी तो तुम्हें खोज रहा है। अब तुम्हारे मिलन का समय आ गया है। तुम अपने लक्ष्य के अत्यंत समीप हो।”
“तो बताओ मुझे कि मुझे अब क्या करना होगा? मेरा मार्गदर्शन करो।”
“तेरी नियति का उदेश्य भी यही है कि मैं तुम्हें उस मार्ग को दिखाऊँ।”
“ऐसा नहीं हो सकता कि आप ही मेरी जिज्ञासा शांत कर दें, मेरे भीतर के सभी प्रश्नों के उत्तर देकर मुझे ज्ञान प्रदान करें।”
“ऐसा नहीं हो सकता, वत्स।”
“क्यूँ प्रभु?”
“दो बातें हैं – एक तो अभी भी उस कर्मफल के पकने का समय थोड़ा दूर है। अभी भी तुम्हें समय के कुछ प्रवाहों को व्यतीत हो जाने देना है। तब तक प्रतीक्षा करनी है।”
“और दूसरा?”
“तुम जिस ज्ञान के मार्ग पर चलना चाहते हो उस मार्ग पर तुम्हें स्वयं ही चलना होगा। मैं तुम्हारा मार्गदर्शन कर सकता हूँ, तुम्हारे लिए चल नहीं सकता।”
“किन्तु, बाबा। अभी तक मैं जितना चल चुका हूँ क्या वह पर्याप्त नहीं? क्या मेरा वह चलना निरर्थक है?”
“नहीं वत्स। कोई भी कर्म निरर्थक नहीं होता। ऐसे सभी कर्म मनुष्य को लक्ष्य के समीप ले जाते हैं। यदि ऐसे कर्म नहीं किए जाएँगे तो लक्ष्य की तरफ जाते मार्ग तक तथा लक्ष्य तक कैसे जा पाएंगे।”
“प्रभु, मैं अनेक संतों से मिला हूँ, अनेक बातें सुनी है, जानी है।”
“वही तो गति दे रहें हैं तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य के प्रति ।”
“किन्तु आपसे मिलकर मुझे जो शांति का अनुभव हो रहा है वह विश्वास दिलाता है कि ...।”
उत्सव क्षणभर के लिए रुका। उस बाबा के मुख पर उभरे भावों को देखने लगा। वहाँ अतल समुद्र की गहन शांति थी, प्रसन्नता थी, एक आभा थी।
‘यह सत्पुरुष पर मुझे श्रद्धधा जन्मी है। मुझे इससे मार्ग पूछ लेना होगा।’
“आप कोई गहन विचार में खोये लगते हो। मैं कुछ क्षण के लिए आप के विचारों में विघ्न न आए इस हेतु मौन हो जाता हूँ।”
“नहीं, तुम कहो जो कह रहे थे।”
“तो क्या मैं जो चाहता हु वह मुझे मिलेगा?”
“अवश्य मिलेगा। यहीं मिलेगा। इसी द्वारिका नागरी में।”
“कौन देगा उत्तर? कहाँ मिलेगा वह मुझे?”
“शांत हो जाओ वत्स। तुम आज ही तो आए हो इस नगर में। कुछ धैर्य रखो।”
“किन्तु मैं वर्षों से भटक रहा हूँ। पूरे भारत वर्ष में सबसे मिल चुका हूँ किन्तु ...।”
“यह द्वारिका है। यहाँ सब कुछ संभव है।”
“मैं उस मार्ग पर चलने के लिए उत्सुक हूँ जिस पर मुझे चलना है।”
“तो सुनो। प्रात: काल तुम समुद्र के जिस तट पर बैठे थे उस तट पर लौटना होगा। वहाँ पंडित गुल है। उसे मिलो।”
“जैसी आज्ञा, प्रभु।”
उत्सव ने दो हाथ जोड़े, आँखें बांध कर ली तथा शीश झुकाकर वंदन किया। संत का अभिवादन किया। शीश उठाया, आँखें खोली। उत्सव अचंभित रह गया। सामने कोई नहीं था।
‘अभी तो यहीं थे, कहाँ चले गए?’
उसने समुद्र तट पर द्रष्टि दौड़ाई। सभी दिशा में खोजा किन्तु कहीं कोई नहीं था।
“वत्स, मुझे ढूंढो नहीं। जब भी तुम विचलित हो जाओ, व्याकुल हो जाओ तब तुम इसी तट पर आ जाना। मैं तुम्हें मिलने आ जाऊंगा। अभी तो तुम अपने मार्ग पर चलने लगो। कोई तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।”
उत्सव के कानों में वही मधुर स्वर गुंजा। उसने चारों दिशाओं में देखा। वह कोई नहीं था। उसने सभी दिशाओं में प्रणाम किया और चल पड़ा उस तट के प्रति।
उत्सव के चरणों में उत्साह था जो उसे गति दे रहा था। मुख पर प्रसन्नता थी। मन में विश्वास, श्रद्धा तथा शांति थी।


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