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पगडण्डी विकास - 2

पगडण्डी विकास

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 2

उस की इस बात पर मैं हंस पडा़। इस बीच उसने अपना परिचय भी दिया था। अपना नाम धीरज सोमवंशी बताया था। मैंने हंसते हुए ही कहा-‘धीरज जी मैं किसी पार्टी से कोई संबंध नहीं रखता। मुझे ये सारी पार्टियां और नेता सबके सब एक से लगते हैं। क्यों कि मैं यह मानता हूं कि ये जो भी करते हैं वह वोट के लिए करते हैं। उनकी पार्टी को वोट कैसे मिले, वो कैसे जीतें यही उनका मकसद होता है। बस फ़र्क इतना है कि कोई कम है कोई ज़्यादा। मैं जॉन क्वांटन की इस बात को शत-प्रतिशत सही मानता हूं कि ‘‘ये नेता तो जब लोगों को सुरंग के दूसरे छोर पर रोशनी नजर आती है, तो वो जाकर कुछ और सुरंग खरीद लाते हैं।’’ तो इन नेताओं की तो मैं बात ही नहीं करता। ये नेता हम देशवाशियों को नई-नई सुरंगें दिखाने वाले ना होते तो सत्तर साल बाद भी देश जापान, चीन से पीछे ना होता। सत्तर साल से गरीबी हटाने के नारे दे-दे कर वोट लिये जा रहे हैं। लेकिन गरीब बढ़ते जा रहे हैं। नेता अमीर होते जा रहे हैं।

आज भी कितने लोग खाना-पीना, रोटी, कपड़ा, मकान के अभाव में मर रहे हैं। इससे ज़्यादा शर्मनाक, डूब मरने वाली बात और क्या होगी? एक दो नहीं सत्तर साल बीत गए भाई। और कितना वक्त चाहिए? इन नेताओं की तो गरीबी, सारी परेशानियां नेता बनते ही दूर हो जाती है। इस लिए मैं किसी नेता या पार्टी की नहीं। व्यक्ति विशेष ही की बात करता हूं।

जिस व्यक्ति ने स्वच्छता अभियान शुरू किया मैं उसे नेता नहीं एक व्यक्ति के रूप में लेता हूं। क्योंकि उसका यह काम ऐसा है जिसमें मुझे उसका कोई राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध होता नहीं दिखता। इसके उलट जिस तरह सख्ती भी बरती जा रही है उससे उसे नुकसान हो सकता है। हां आतंकियों, कश्मीरियों के मुद्दे पर उसे मैं उसी रास्ते पर मुड़ता देख रहा हूं, जिस रास्ते पर उसके पूर्ववर्ती चले थे।’

‘ये तो बड़े आश्चर्य वाली बात कह रहे हैं आप। ये पी.एम. तो शुरू से ही एकदम अलग चला है कश्मीर मुद्दे पर। बड़ा सख्त है आतंकियों पर।’ ‘धीरज जी यही तो! यही तो मैं कह रहा हूं कि पहले ठीक चले। उम्मीदें बधीं कि आतंकियों, गद्दार अलगाववादियों से देश की सवा अरब जनता मुक्ति पाएगी। लेकिन बाद में चार कदम आगे, दो कदम पीछे वाली हालत मुझे दिखाई दे रही है। दो उदाहरण देता हूं। पहला नवंबर 2014 का। आतंकी कार में जा रहे थे। खुफिया सूचना पर सेना ने उन्हें एक चौराहे पर रोकना चाहा, नहीं रुके। दूसरे, तीसरे पर भी नहीं रुके।

अंततः मज़बूर होकर सेना ने कार्यवाही की और वो दोनों आतंकी मारे गए। सेना की इस कार्यवाही पर विपक्षी पार्टियां सेना की तरीफ़ तो नहीं कर सकीं। उल्टे उसी पर राशन पानी लेकर चढ़ पड़ीं। पी.एम. ने भी सपोर्ट नहीं किया। जांच के आदेश हो जाते हैं। लेकिन प्रेशर इतना पड़ा कि जांच पूरी होने से पहले ही अंततः सेना के बहुत बड़े अधिकारी को माफी मांगनी पड़ी। जांच पूरी हुई तो सेना सही निकली।

यह पहला मौका था जब सेना के इतने बड़े अधिकारी को माफी मांगनी पड़ी। इतना अपमान झेलना पड़ा। देश के दुश्मन गद्दारों से माफी मांगनी पड़ी। चलिए यहां तक किसी तरह बर्दाश्त कर लिया जाए। मगर अति तो तब हो गई। जब स्थानीय चुनाव के वक्त इसे मुद्दा बनाया गया। कहा गया कि देखिए इतने बड़े अधिकारी ने पहले कभी माफी नहीं मांगी लेकिन अब मांगी। अब आप ही बताइए कि जो सेना अपनी जान देकर हमारी रक्षा करती है। हम आप यहां निश्चिंत होकर सुरक्षित गप्प मार सकते हैं, उसी सेना को माफी मांगने के लिए विवश किया जाता है। वोट के लिए माफी को हथियार बनाया जाता है। वहां सेना के मनोबल को किस तरह कुचला जा रहा है इसका एक उदाहरण और देता हूं।

यही अप्रैल 2016 की बात है। एक लड़की के साथ दुर्व्यव्यहार पर मामला भड़क उठता है। आतंकी अपना खेल खेलने लगते है। हंदवाड़ा में भीड़ सुरक्षा बलों पर हमलावर हो गई। सेना के जो बंकर वहां पचीस-तीस वर्ष से बने थे उसे आंतकी भीड़ तोड़ती रही। उसे नेस्तनाबूत करती रही, मगर सेना को इन गद्दारों पर कार्यवाई नहीं करने दी गई। यहां भी मामला झूठा निकला। इससे सेना का मनोबल चूर-चूर नहीं होगा तो क्या होगा? फिर भी हम अपेक्षा करते हैं कि सेना हमारी रक्षा करे। पीएम के क़दम यहां भी आगे-पीछे होते रहे। इससे वहां अलगाववादी और मज़बूत हो रहे हैं।

इतना ही नहीं इन अलगाववादियों को पिछली सरकारें पालती आईं हैं। इनकी सुरक्षा हमारी सरकार करती है। इन पर करोड़ों रुपए खर्च करती है। इनके लिए होटलों में सैकड़ों कमरे हमेशा बुक रहते हैं। मतलब कि हमारे ही पैसे से इनके खाने-पीने रहने, सुरक्षा का सारा इंतजाम होता है। मगर फिर भी ये हमें डसते रहते हैं। नई सरकार, नई पार्टी से लोगों ने उम्मीद की थी कि इन अलगाववादियों को कम से कम सरकार पालना बंद करेगी। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ। दुनिया में ऐसा उदाहरण कहीं नहीं मिलेगा। इसीलिए इस मुद्दे पर मुझे उसके प्रति सख्त नाराजगी है। इसलिए आपसी बातों को किसी फालोअर की बात मानकर ना चलें। एक सामान्य देशवासी की बात मानें।’

मेरी इन बातों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद वह बोला-‘आप तो बड़ी दिलचस्प बातें करते हैं। टीवी चैनलों पर डिबेट में राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं की तरह अपनी बातें कह रहें हैं। बड़ा अच्छा लग रहा है आप से बात करके। मगर विनायक सेन जी मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि मैं भी आपकी तरह किसी पार्टी का मेंबर भी नहीं हूं। मैं एक बिज़नेसमैन हूं। और एक बात बहुत साफ मानता हूं, कहता हूं कि कुछ भी कहिए। देश ने विकास तो किया है। इस सच से हम मुंह नहीं मोड़ सकते। आप को भी इस सच को मानना चाहिए। टेन में टेन नहीं तो हम इसके लिए उन्हें सेवेन, एट. मॉर्क्स तो दे ही सकते हैं। विकास तो हुआ ही है। क्या कहते हैं आप।’

उसकी बातें सुनते हुए मैं सोच रहा था बेटा बोल जितना बोलना है। लेक्चर दे ले। मेरा टाइम आसानी से कट रहा है। बस पंद्रह मिनट और।

इसके बाद तो ट्रेन की पता नहीं किस बोगी में तू और किस में मैं। मगर तब-तक तूने ये जो विकास हमें दिखाया है उसका असली चेहरा तुझे दिखाता हूं। मगर तुम्हारी बातों का जवाब देने से पहले एक बार उस महिला को देख लूं वह कैसी है। तेरी बातों में उसे भूल ही गया। बातूनी, बकलोल कहीं का। मैंने उठते हुए उससे कहा- ‘एक मिनट मैं उसकी हालत देख कर आता हूं। शायद उसे कंबल ओढ़ने के बाद आराम मिला है। अब उस की आवाज़ नहीं आ रही है।’ मेरे इतना कहते ही वह बोला-‘अरे विनायक जी आप कहां परेशान हो रहे हैं। उसे जो चाहिए था वह आपने दे दिया, अब वह तान कर सो रही है।’ लेकिन मैं उसकी बात को अनसुनी करता हुआ उसके पास गया। देखा वह सो रही थी।

मैंने उसे कंबल, शॉल से पहले ही अच्छे से सिर तक ढंक दिया था। अब वह पहले की तरह बिल्कुल नहीं कराह रही थी। उसे आराम से सोता देख कर मुझे बड़ी संतुष्टि मिली। कोहरे की तरफ मेरा ध्यान फिर गया वह अब पहले से ज़्यादा दिख रहा था। हम शेड के बीचो-बीच थे, वह महिला दिवार से सटी थी। फिर भी कोहरे का झोंका ऐसा लगता कि अंदर तक आ ही जा रहा है। मैं वापस आकर बैठा। प्लेटफॉर्म की घड़ी पर नजर डाली तो वह बंद मिली।

मैंने मोबाइल में देखते हुए कहा-‘धीरज जी अब तो ट्रेन के आने का टाइम दस मिनट ही रह गया है। लेकिन ट्रेन के बारे में अभी तक कुछ एनाउंस नहीं हुआ।’ मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि एनाउंसमेंट शुरू हो गया। मेरी उत्सुक्ता बढ़ गई। यात्री गण कृपया ध्यान दें.....। इसके बाद पूरी बात सुनकर मैंने कहा-‘लीजिए धीरज जी विकास देखिए। ट्रेन घंटा भर और लेट हो गई। विकास के सत्तर साल हो गए लेकिन हम ट्रेन तक टाइम से नहीं चला पा रहे हैं।’

धीरज हंसते हुए बोला-‘कोई बात नहीं विनायक जी हमारी बात भी अभी पूरी नहीं हुई है। जब तक पूरी होगी तब-तक एक घंटा बीत जाएगा, पता भी नहीं चलेगा।’ वह हा-हा कर फिर हंस पड़ा। मेरे कुछ बोलने से पहले ही रेडीमेड खैनी तंबाकू का पाऊच निकाल कर बोला। ‘लीजिए ऐसे मौसम में ये बुद्धिवर्धक चूर्ण लीजिए। बड़ा आराम मिलेगा। मैंने तुरंत मना कर दिया। झूठ बोल दिया कि मैं तंबाकू नहीं खाता।

उसके तंबाकू ऑफर करते ही मेरे दिमाग में आए दिन ट्रेन, बस में जहर खुरानों द्वारा ऐसे ही यात्रियों से दोस्ती करते, फिर खाने-पीने की चीजों में जहर देकर बेहोश या मार कर लूटने की घटनाएं आ गईं। पत्नी इन चीजों को लेकर मुझे बराबर आगाह करती रहती है कि अनजान आदमियों से भूलकर भी कुछ मत लेना, ना खाना-पीना। मैंने देखा अब तक सात-आठ और यात्री भी प्लेटफॉर्म की अन्य कई बेंचों पर बैठ गए थे। मेरे मना करने पर वह तंबाकू दांत और होट के बीच में चुटकी से दबाते हुए बोला-‘विनायक जी ये बुद्धिवर्धक चूर्ण मैं स्टूडेंट लाइफ से ही खाता आ रहा हूं। बिना इसके तो मैं अब कोई काम ही नहीं कर पाता। ये ट्रेन ड्राइवर भी मुझे लगता है कि बिना इसके इंजन स्टार्ट कर नहीं पाते।’

ट्रेन के लेट हो जाने से ज़्यादा मुझे अब उसकी ऐसी बेहूदा बातों से खीझ होने लगी। मैंने सोचा कि खीझ कर कहीं मैं कोई सख्त बात ना बोल बैठूं और बेवजह यहां लड़ाई-झगड़ा हो इसलिए मैं चुप रहा। सोचा यह बकलोल बकलोलई (निरर्थक, अनर्गल बातें) करेगा। फिर मेरी कोई बात इसको चुभ गई तो यह झगड़ा भी करेगा। मगर वह ऐसा बातुनी था कि चुप ही नहीं हुआ। विकास के पीछे ही पड़ गया। इतना कि मैं चुप नहीं रह पाया।

मैंने कहा ‘आप जिस विकास की बात कर रहे हैं उस बारे में इतना ही कहूंगा कि जापान, चीन और हम लोग लगभग साथ-साथ आज़ाद हुए। मैं एकदम साफ कहता हूं कि जापान, चीन ने वास्तविक विकास किया। दुनिया के पहले पांच-छः शक्तिशाली देशों में शामिल हैं। चीन जिस तेज़ी से आगे बढ़ रहा है अमरीका, रूस जैसी महाशक्तियां अगले कुछ सालों में उससे पिछड़ जाएं तो आश्चर्य नहीं। जापान का विकास तो इन सबसे आगे है ही।

हम यहां ट्रेन के इंतजार में ठिठुर रहे हैं। बैठने तक की ढंग की जगह नहीं है। सुरक्षा को लेकर संदेह है। चीन मैंग्लेव ट्रेन चला रहा है। जिसमें पहिए ही नहीं होते। उसकी गुड्स ट्रेन्स कई देशों को पार कर लंदन तक सामान पहुंचा रही हैं। जापान की बुलेट ट्रेनों का जवाब नहीं। हमारे यहां अभी बुलेट ट्रेन शुरू होने में चार-छः साल और लग जाएं तो आश्चर्य नहीं। हम नोट छापने के लिए इंक, कागज तक बाहर से मंगाते हैं। सेना के हथियारों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर हैं। वो सप्लाई बंद कर दें तो हफ्ते भर भी किसी से लड़ नहीं सकते।

देश में शत-प्रतिशत साक्षरता एक सपना बनी हुई है। पूरी शिक्षा व्यवस्था आंसू बहाने को विवश करती है। महिलाएं क्या पुरुष, बच्चे बूढ़े कोई भी सुरक्षित नहीं। बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य सहित किसी भी क्षेत्र में हम नहीं कह सकते कि हम फलां क्षेत्र में विकसित हो गए हैं। गरीबी दूर नहीं कर सके। फिर भी सरकार बड़ी बेशर्मी घमंड के साथ प्रचार करती है कि गरीबों को हम मनरेगा योजना के तहत सौ दिन रोजगार देते हैं। इससे उनकी रोजी-रोटी चलती है। तो भाई बेशर्म नेतागण ये भी तो बताओ कि बाकी दौ पैंसठ दिन ये गरीब जो फांकाकसी करेंगे उसका जिम्मेदार कौन है।

सत्तर साल में हम उनको इतना सक्षम, स्वावलंबी क्यों नहीं बना सके कि ऐसी योजनाओं की जरुरत ही न पड़ती। इतने सालों में हम लोगों को गढ्ढा खोदने, झऊवा उठाने लायक ही बना सके। फिर भी हम ऐसी योजनाओं पर घमंड करते हैं। अरे ऐसी योजनाएं देश के माथे पर कलंक हैं। काला धब्बा हैं। सबसे पहले तो हमें इस कलंक को साफ करने का अभियान चलाना चाहिए। हम आगे बढ़े ही नहीं। हम रेंग रहे हैं। यह नई सरकार भी बड़ी बातें कर रही है। अगर आधा भी कर ले तो भी बहुत काम होगा। हालात बदल जाएंगे। मगर इसके लिए भी आठ-दस साल तो चाहिए ही। तो धीरज जी मैं बहुत साफ कहता हूं कि विकास तो चीन, जापान ने किया है। हमने नहीं।’

‘अरे आप कैसी बातें कर रहे हैं विनायक जी। आपकी बातों को मानें तो पिछले सत्तर साल में हमने कुछ किया ही नहीं। कोई विकास नहीं किया तो ये बताइए देश के कोने-कोने तक हम ट्रेन से जा पाते? जहाज से दुनिया में कहीं भी जा सकते? खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हैं। अब तो हर साल इतना आनाज चूहे, कीड़े खा जाते हैं, इतना बर्बाद होता है जितना ऑस्टेªलिया पैदा करता है। मेडिकल फैस्लिटीज के कारण मेडिकल टुरिज्म बढ़ रहा है। खेल में आगे बढ़ रहे हैं। सड़कों का जाल बिछ रहा है। बड़े-बड़े एजूकेशन सेंटर हैं, जहां विदेशों से भी लड़के पढ़ने आते हैं। सबसे ज़्यादा पिक्चरें यहां बनती हैं। अंतरिक्ष में रिकॉर्ड-तोड़ सफलताएं हासिल कर रहे हैं। पाकिस्तान, चीन जैसे दुश्मन देश सीधे टकराने से बचते हैं। क्या ये सब विकास नहीं है? विकास नहीं है तो क्या है?’

धीरज को यह सब कहते हुए मैं जितना सुन रहा था उससे कहीं ज़्यादा यह सोच रहा था कि ये बकलोल चुप ना हुआ तो ऐसे ही सिर खाता रहेगा। इसको एकदम चुप कराने के लिए यह बहुत जरूरी हो गया है कि इसको एकदम धो-पोंछ कर सुखा डालूं। मैंने यही सोच कर उसके चुप होते ही कहा ‘लेकिन चीन, जापान के आगे कहां ठहरते हैं? निश्चित ही इसका जवाब हमारे, आपके पास, देश के किसी व्यक्ति के पास नहीं होगा। बंधुवर सच कहूं कि हमने विकास किया नहीं है। विकास हो गया है। दुनिया के अर्थ-शास्त्री इस विकास को चमत्कार या कुछ भी कहें। लेकिन मैं इसे ‘‘पगडंडी विकास’’ कहता हूं।’

यह कहते ही धीरज एकदम चौंक गया। अपनी जगह थोड़ा तन कर बैठते हुए उसने कहा ‘‘पगडंडी विकास’’! अरे भईया ये कौन सा विकास है? पहली बार सुन रहा हूं। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है।’ धीरज ने हंसते हुए यह बात कही। हंस मैं भी रहा था। इस पर वह फिर बोला- ‘बताइए भाई बताइए। ‘‘पगडंडी विकास’’ को हम भी जान लें ।’ मुझे लगा यह बकलोल अब ज़्यादा नहीं बोलेगा, अब रही-सही कसर पूरी कर दूं। मैंने कहा ठीक है। तो ध्यान से सुनिए ‘‘पगडंडी विकास’’ क्या है?

पहले ये बताइए कि गांव से आपका संबंध कितना है? उसने कहा ’गांव से तो अब मेरा कोई संबंध रहा नहीं। असल में मैं वहां की बिलो द बेल्ट राजनीति, आए दिन की समस्याओं से बहुत ऊब गया तो खेती-बाड़ी सब बेच-बाच कर गांव को हमेशा के लिए जयराम कह आया हूं। फादर थे नहीं। मां की भी यही इच्छा थी। उसे हमेशा यही डर सताए रहता था कि दुश्मन पट्टीदार कहीं मेरी हत्या ना कर दें। इसी बीच एक हत्या गांव में हो भी गई तो फिर मां एकदम पीछे पड़ गई। फिर आनन-फानन में बेच-बाच दी सारी खेती-बाड़ी।’

‘मतलब कि आप गांव में पल-बढ़े हैं। लंबे समय तक वहां रहे हैं। इसलिए आपने पगडंडी देखी ही नहीं है बल्कि उस पर खूब चले भी हैं। पगडंडी कैसे बनती है वह भी आप जानते हैं। वैसे आप अगर खुद बताते तो और अच्छा था।’

‘नहीं आप ही बताइए। आप पगडंडी नहीं ‘‘पगडंडी विकास’’ की बात कर रहे हैं। जो मैं पहली बार सुन रहा हूं। इसलिए आप ही बताइए। मुझे तो सिर्फ़ सुनना है।’

‘चलिए अच्छी बात है। देखिए मेरी नजर में भारत का विकास ‘‘पगडंडी विकास’’ इस लिए है क्यों कि जैसे गांव-देहात या कहीं भी किसी क्षेत्र में लोगों के किसी एक ही दिशा में आते-जाते रहने से उस पूरी जगह जहां लोगों के पैर पड़ते हैं, वहां से घास वगैरह गायब हो जाती है। साफ-सुथरी एक पट्टी सी बन जाती है। जैसे गंजे व्यक्तियों के सिर पर से बीच से बाल गायब हो जाने से बीच में सफा-चट सिर नजर आता है। यानी कि लोगों के चलने से एक रास्ता बन जाता है। घास गायब हो जाती है। तो यह रास्ता किसी ने बनाया नहीं। यह लोगों के चलते रहने से विकसित हो गया। किसी ने सोच-समझ कर सयास इसका विकास नहीं किया। बस हो गया। तो ठीक ऐसा ही है हमारे देश का अधिकांश विकास। जो किया नहीं गया बस हो गया। लोग चलते रहे और देश भी चलता रहा।

इस ‘‘पगडंडी विकास’’ के कारण ही हम अंधेरे में ठंड से कांपते ट्रेन का इंतजार कर रहे हैं। और हमें यह तक नहीं पता कि वाकई ट्रेन की लोकेशन क्या है? जापान, चीन में जितनी दूरी लोग ट्रेन से एक घंटे में तय कर लेते हैं। हमें हमारी ट्रेनें उतनी दूर कम से कम पांच-छः घंटे में पहुंचाती हैं। तो धीरज जी ‘‘पगडंडी विकास’’ और किए गए विकास में ये मूल फ़र्क़ है। अब कहिए क्या कहेंगे? मैंने सही कहा या गलत।’ मुंह में तंबाकू भरे धीरज हूंअहूं...अ कर हंसते हुए उठकर पिलर के पास गया। पिलर के एक कोने पर पिच्च से थूक कर वापस आया। अपनी जगह बैठ कर बोला-

‘वाह विनायकजी बहुत खूब। आपकी पगडंडी थ्योरी का भी जवाब नहीं। बड़े-बड़े अर्थ शास्त्रियों की थ्योरी इसके आगे पानी भर रही हैं, तो मैं क्या बोलूंगा? विकास किया गया और विकास हो गया, इन दोनों के बीच आपने ऐसी विभाजन रेखा खींची है कि सारे क्योश्चन खत्म हो गए हैं। हालांकि मैं अपने एक गुरु की बात कभी नहीं भूलता कि उत्तर कितना भी सटीक हो, प्रश्न की संभावना कभी खत्म नहीं होती।’

‘ तो करिए प्रश्न।’ मैंने मन ही मन सोचा यार थोड़ा चुप क्यों नहीं हो जाते। मैंने टाइम पास करने की सोची थी। तुम से झक लड़ाने या सिर खपाने की नहीं। अब भी प्रश्न करने की संभावना तलाश रहा है। पता नहीं कितना प्रश्नानुकूल प्राणी है। प्रश्न करने को कहते ही वह बोला ‘प्रश्न की संभावना खत्म नहीं होती, मैंने यह कहा। फिलहाल कोई प्रश्न है यह मैंने नहीं कहा।’ अपनी बात पूरी करते-करते ही उसने फिर तंबाकू का पाउच निकाल लिया। मुझसे पूछा मैंने फिर मना कर दिया।

मन ही मन सोचा चेन स्मोकर सुना था। ये तो चेन टोबेको ईटर लग रहा है। अभी थूक कर आया फिर खाने जा रहा है। खाकर पाउच फिर जब जेब में रखने लगा तो मैंने उससे पूछ ही लिया ‘क्या आप मुंह में तंबाकू हमेशा दबाए रहते हैं?’ तो उसने मुझे कुछ आश्चर्य में डालते हुए कहा कि ‘मैं तो सोते समय भी मुंह में दबाए रहता हूँ । ना लूं तो सो नहीं पाऊंगा।’ मैंने कहा ‘इन पैकेटों पर कैंसर पेशेंट की भयावह फोटो रहती है। फिर भी आप लोग खाते रहते हैं। डर नहीं लगता कैंसर होने का। यह नहीं सोचते कि कुछ हो गया तो परिवार को कौन देखेगा?’

मेरे इतना कहते ही वह हंसा। बोला ‘आप भी कैसी बातें करते हैं। ये बताइए कि हम लोग ट्रेन, बस वगैरह से हर जगह आते-जाते रहते है ना। जब कि हर साल लाखों लोग एक्सीडेंट में मर जाते हैं। अपंग हो जाते हैं। परिवार तो तब भी दो राहे पर आ जाता है। बिखर जाता है। फिर भी हम घर से निकलना बंद नहीं करते। इतना कोहरा है। जर्नी के हिसाब से यह सबसे खतरनाक मौसम है। फिर भी देखिए हम लोग निकले हैं कहीं ना कहीं जाने के लिए। तो जो होना होगा वह होगा। नहीं होना होगा नहीं होगा।’

बात करने की उसकी टोन से मुझे लगा कि उसे मेरी बात बुरी लगी। दूसरे मैंने बेवजह इसे फिर छेड़ दिया। फिर से सिर खाएगा। इसलिए बात खत्म करने की गरज से कहा ‘हां सही कह रहे हैं। बेवजह परेशान होते हैं हम लोग कि ये हो जाएगा वो हो जाएगा।’ ये कह कर मैं चुप हो गया। मगर मन में यह बात भी आ गई कि ऐसी सोच के चलते ही शायद पहले यह कहा गया कि ‘चिलरे (चीलर) के डर से कथरी नहीं छोड़ी जाती।’ लेकिन इसका जवाब भी तो तभी के लोगों ने दिया कि ’दीदा (आंख) फोड़ें अपने हाथ, नाव(नाम) लगावें भवानी के।’ खुद कुंआ में कूद कर कहें कि यही होना था। वाह री सोच। बचाव के कैसे-कैसे कुतर्क हैं। मैंने सोचा अच्छा होता यदि गवर्नमेंट इन चीजों का उत्पादन ही बंद करा दे। मैंने अपने दिमाग को शांत करने की कोशिश की और उठ कर फिर उस महिला को देखने गया। मुझे इस बार और शांति मिली कि वह आराम से सो रही थी।

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