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छोटी बहू

कहानी [छोटी बहू ✍]
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मृणाल यह एक नाम जैसे ज़िन्दगी बन गया है ।पहले कभी वैसा महसूस ही नहीं किया जैसा उससे मिलने के बाद,वह जिस दिन हाँ कहेगी वह दिन मेरी ज़िंदगी का सबसे खुशनुमा दिन होगा --इन्हीं भावों में डूबे हुए मेरे होठों पर मुस्कराहट तैर गयी ।

"हूँ दादा !मन ही मन कौन से लड्डू खा रहे हैं जो इतना मुस्कुरा रहे है ।" मैने ध्यान ही नहीं दिया था कि कब मेरी छोटी बहन आकर मेरे पास बैठ गयीं

"तुम छोटी हो न छोटी ही रहो ज्यादा बड़ों के जैसी बातें न किया करो ।" मैने बनावटी गुस्से से कहा और मृणाल के घर की तरफ चल पड़ा ।

घर में प्रवेश करते ही वहीं प्रतिदिन वाला दृश्य था, काका-काकी दालान में पड़े तख्त पर आराम फ़रमा रहें थे और मृणाल उनकी सेवा में लगी थी ।

"अरे सजल बेटा ! आओ आओ ।" काकी ने कहा

"कहो कैसे आना हुआ ?" काका ने बड़ी रुखाई से पूछा

मैंने कोई जवाब नहीं दिया ।क्या कहता मृणाल की एक झलक पाने को रोजाना खिंचा चला आता हूँ ।मैं ढीठता पूर्वक पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया ।

"छोटी बहू!चाय बनाकर लाओ सजल आया है।" काकी ने मृणाल को आवाज़ लगाई

कुछ देर बाद मृणाल चाय बना लायी ।उसने जैसे ही चाय का कप मेरी तरफ बढ़ाया तभी मेरा ध्यान उसके हाथ की तरफ गया जो बुरी तरह से झुलसा हुआ था ।

"अरे यह आपके हाथ को क्या हुआ ?" अन्यायास ही मेरे मुँह से यह स्वर फूट पड़े

"अरे कुछ नहीं खाना बनाते वक्त जल गया ।" काकी ने उतावलेपन के साथ कहा

मृणाल की आँखों में नमी तैर आयी, वह आँसू छिपाती हुई रसोईघर की तरफ चली गयी ।

मृणाल के घर से लौटने के बाद मेरी आँखों के सामने उसका झुलसा हुआ हाथ और उसकी आँसू भरी निगाहें थी ।मैं पहले से जानता था उस घर में उसपर अत्याचार होते हैं और जब धीर इस दुनिया में था तब भी होते थे ।खुद धीर ने भी तो कम अत्याचार नहीं किए उसपर ।

वह दिन मैं कैसे भूल सकता हूँ जब मैंने पहली बार मृणाल को देखा था ।उस दिन भी वह इतनी ही गुमसुम सी थी जैसे आज ।उस दिन धीर ने अपने दोस्तों के साथ कुछ ज्यादा ही नशाखोरी कर ली थी ।जब वह आधी रात तक घर नहीं पहुँचा तो काका का फोन आया और मैं तभी उसे ढूंढने निकल पड़ा ।मैं जानता था वह अपने दोस्तों के साथ नशे में टुन्न पड़ा होगा ।उसे घर तक लाने में मेरी हालत खस्ता हो गयी थी ।काका-काकी और मृणाल तीनों ही उसका इंतजार कर रहे थे ।

मुझे पता चला यह रोज का किस्सा है ।गलत राह पर धीर चल रहा था और काका-काकी मेरे सामने ही मृणाल को सुनाने लगे थे कि पति को सँभाल कर नहीं रख सकती ।वह पत्नी ही क्या जो पति को पल्लू से बाँधकर न रख सके ।सब इसी की कमी है और भी न जाने क्या क्या ।

यह सब देख सुनकर मुझसे रहा नहीं गया और मैने कहा --"धीर को बचपन से जानता हूँ मैं ।वह कच्ची उम्र से ही पथभ्रष्ट हो गया था ।शादी तो बहुत बाद में हुई उसकी ।"

मेरा ऐसा कहना काका को ज़रा भी पसंद नहीं आया और उसके बाद वह मुझसे रूखा बर्ताव करने लगे लेकिन जब कोई काम होता तो सबसे पहले मुझे ही याद करते ।

मृणाल की खामोशी,धीरज और मासूमियत मेरे मन को छू गयी थी लेकिन मैं चाहता था वह अन्याय को न सहे और अपनी खामोशी तोड़े लेकिन वह हमेशा मूक बनी रहती जैसे इन सब यातनाओं को नियति मान बैठी हो ।

एक दिन काका और काकी की अनुपस्थिति में मेरा धीर के घर जाना हुआ ।सोचा आज उसे पास बिठाकर अच्छे से समझाऊँगा कि अब सही राह पर आ जाए लेकिन जब मैं वहाँ पहुँचा उस वक्त भी वह नशे की हालत में था और थोड़ी देर बाद सो गया ।

वह पहला दिन था जब मैंने मृणाल से बात की ।वह कोई सहारा नहीं ढूंढ रही थी बल्कि बस एक ऐसा विश्वासपात्र जो उसकी व्यथा सुन लें और वह इन सब गुबार से अपना हृदय कुछ रिक्त कर सके ।

उस दिन उसने बताया कि माँ-पिता जी ने बड़ा घर-परिवार देखकर ही उसकी शादी धीर से करा दी और पहले दिन से ही धीर का नशे की हालत में देरी से घर आना हो या उसे गरीब कहकर और शादी करकर अहसान किया तुम पर जैसे जुमले बोलना हो आम बात थी ।वह उसके लिए केवल देहमात्र थी ।कभी वह प्रेम व स्नेह उसे नहीं मिला जो हृदय में बसा कर वह यहाँ आयी थी और अब तो उसपर हाथ भी उठने लगे थे ।वह और भी न जाने कितनी व्यथा बताती चली गयी ।

धीर के बड़े भाई सुधीर अपने बीवी बच्चों के साथ दूसरे शहर में रहते थे ।वह माता-पिता से कोई वास्ता नहीं रखते थे ।मृणाल इस घर की छोटी बहू जो सारी जिम्मेदारियाँ उठा रही थी और बदले में यातनाएँ झेल रही थी ।

ईश्वर के समक्ष उसकी और परीक्षाएँ अभी बाकी थी जो हार्ट फेल होने की वजह से असमय ही धीर इस दुनिया से कूच कर गया ।छः महीने हो गए धीर को गये और अभी भी मृणाल ससुराल में यातना झेल रही है ।मैने उससे एक बार इस विषय में पूछा था तब उसने कहा कि --" न मायके और न ही ससुराल पर बोझ बनना है ।वह कोई छोटी-मोटी नौकरी करकर अलग रहेगी और अपना जीवनयापन स्वयं ही करेगी ।"

मैं जानता था वह इतनी निडर नहीं ।वह तो इस दुनिया से भी डरती है,वह कैसे रहेगी अकेले ।उसी दिन मैंने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया था ।यह कोई दया या अहसान नहीं था मैं प्रेम करता था उससे।वह मेरे जीवन में आती तो मेरी ज़िंदगी सच में ज़िन्दगी होती ।

उसने मेरे प्रस्ताव का आज तक कोई जवाब ही नहीं दिया ।मेरे मन में उसके प्रति पवित्र भाव थे और भावी सुन्दर भविष्य के सपने ।अगर धीर इस दुनिया में होता तो मैं कभी मृणाल से ऐसी बात न कहता और न सोचता , बेशक मेरे दिल में उसके प्रति प्रेम रहता हमेशा के लिए लेकिन अब धीर नहीं है तो मृणाल मेरी तरफ कदम बढ़ा सकती है ।

वह इन्हीं ख़्यालों में गुम था कि उसने साँझ के हलके अंधियारे में अपने ऊपर कोई साया आता हुआ प्रतीत हुआ ।यह मृणाल ही थी जो उसकी तरफ कदम दर कदम बढ़ाती आ रहीं थी ।उसने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था और मेरी ज़िन्दगी सच में ज़िन्दगी हो गयी थी ।

पुष्प सैनी 'पुष्प'