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नाम में क्या रखा है...

नाम में क्या रखा है...

प्रियंका गुप्ता

शाम के साढ़े छः बजे थे। वो बस अभी ही कमरे में घुसी थी। पूरा दिन कितना तो थकान भरा रहता है, पहले ऑफ़िस की चकपक से जूझो, फिर रास्ते के ट्रैफ़िक की चिल्लपों...नर्क लगती है ज़िन्दगी...। ऐसे में उसे रवि किशन की फ़ेमस पंचलाइन ही याद आती है...ज़िन्दगी झण्ड बा, फिर भी घमण्ड बा...। अब वापस घर आती है तो लगता है मानो स्वर्ग में घुस रही हो...कम-से-कम वहाँ की शान्ति तो उसे स्वर्गिक ही लगती है...।

‘घर...’, अपनी सोच पर वह खुद ही मुस्करा दी...। वर्किंग वूमेन के लिए तथाकथित हॉस्टल का यह एक कमरा कब अचानक उसके लिए घर में परिवर्तित हो गया, उसे अहसास ही नहीं हुआ...। पर ग़लत भी क्या था इसमें, अगर वह ऐसा सोच रही...। घर ही तो वह जगह है जहाँ इंसान को दुनिया से छिप कर राहत मिलती है और इस हॉस्टल के अलग-अलग कमरों में रहने वाली हर औरत, हर लड़की शायद अपने-अपने कमरे में उसी की तरह महसूस करती है...। घर से दूर यह ‘घर’ सब का बहुत बड़ा सहारा साबित होता है...इत्ते बड़े शहर में सिर छिपाने की जगह मिलना क्या कोई आसान बात है भला...?

अभी कपड़े बदल उसने बन चुकी चाय का प्याला हाथ में उठाया ही था कि तभी सामने पलंग पर रखे लैपटॉप में ‘पिंग’ की आवाज़ हुई...। बिना देखे ही वह समझ गई थी, उसी का मैसेज होगा...। जाकर चेक किया तो अनुमान बिल्कुल सही था...वही था...अनजाना...।

आर यू देयर...?

प्रत्युत्तर में वह भी ऑनलाइन हो गई...हम्म्म...।

कैसा रहा दिन...?

रोज जैसा...बिल्कुल बोरिंग...।

अभी आई हो...?

हाँ...बस चाय पीने जा रही...और तुम...? कहाँ हो...?

मैं भी कहाँ होऊँगा...वहीं, अपने घर में...अपने कमरे में...।

पता है, आज मैने एक नई किताब खरीदी...हार्पर ली की...टू किल आ मॉकिंग बर्ड...।

अच्छा...! अच्छी किताब है...।

पढ़ी है तुमने...?

नहीं...पर नाम सुना है...तारीफ़ भी...।

मैं पढ़ लूँगी तो बताऊँगी, कैसी है...|

ठीक है, बताना...|

चाय ठंडी हो रही थी...| उसे भी समझ नहीं आ रहा था कि आज आगे क्या लिखे...| वैसे उसे तो रोज ही कई बार समझ में आना बंद हो जाता था कि इस चैटिंग में अब क्या लिखना चाहिए...| सामने या फोन पर किसी से बात करना अलग बात है और यूँ कीबोर्ड पर उंगलियाँ चलाते हुए बात करना अलग...| वैसे भी चैटिंग का यह नशा उसे नया-नया ही लगा था...यही तकरीबन सात-आठ महीने पहले...| यूँ ही दो-चार दिन शुरुआत में कुछ लोगों से इस चैट रूम में आकर बात करने के दौरान ही उसे ये मिल गया...| जब उसकी तरफ़ से ‘हाय’ आया तो सबसे पहले तो उसका नाम ही क्लिक कर गया...डीप थिंकर...। तो महाशय काफ़ी डीप थिंकिंग करते हैं...। काफ़ी सोचा-समझा नाम है...। वैसे नाम तो उसने भी सोच-समझ कर ही चुना था...टुडेज़ वूमेन...।

अनजाना ने उससे पहला सवाल ही यही किया था...आप अपने को किन खासियतों की वजह से टुडेज़ वूमेन मानती हैं...?

बाप रे...! उसे तो ऐसा लगा था कि वो चैट रूम में नहीं, बल्कि इंटरव्यू के लिए बैठ गई है...। पर इतनी आसानी से हार मानने वाली तो वो भी नहीं थी...| दन्न से टाइप कर मारा...इंडिपेंडेंट हूँ...पढ़ी-लिखी हूँ...अपने हक को जानती हूँ...वगैरह-वगैरह...|

उसे यह देख कर खुशी हुई थी, कुछ सन्तोष भी हुआ था कि बाकी लड़कों की तरह अनजाना ने उसके इंडिपेंडेंट होने का ग़लत मतलब नहीं लगाया था। वरना अभी तक तो यही होता आया था कि इधर उसने इंडिपेंडेंट लिखा, उधर लड़कों ने उसे कहाँ से कहाँ पहुँचाने की मंशा जता डाली...। पर अनजाना उनसे अलग था।

‘अनजाना’...इस शब्द पर भी उसके खूबसूरत चेहरे पर एक मुस्कान आ जाती है...। ये अनजाना और वो अनजानी...। ये नाम दोनो को उसकी सहेली शिल्पा ने ही दिया था, जब उसने उसे बताया था कि किसी ‘डीप थिंकर’ से वो कई दिन से लगातार चैटिंग कर रही है। इतने दिन गुज़र जाने पर भी न तो उस थिंकर ने उसका नाम पूछा न उसने उसका...। बस अपने इस फ़र्जी नाम से ही बतकही करते आ रहे हैं...। सुन कर शिल्पा छूटते ही बोली थी,"मतलब आज तक वो अनजाना, तू अनजानी...भई वाह! क्या बात है...!"

उसने उसी शाम को उस ‘गहरी सोच’ वाले को उसके नए नामकरण के बारे में बताया था। सुन कर वो भी खूब हँसा था...। उसकी हँसी वो देख-सुन भले नहीं पाई थी, पर महसूस तो किया था न...। तब से उन दोनो ने एक अनकहे-अलिखित से समझौते को अपना लिया था...जब तक ज़रुरत नहीं होगी, एक-दूसरे के लिए अनजाना-अनजानी ही बने रहेंगे...। नो प्रॉब्लम...।

उसकी और उसके अनजाने की रुचियाँ, पसन्द-नापसन्द बहुत मिलते थे...। उसकी तरह अनजाना भी पढ़ाई के साथ-साथ ही आत्मनिर्भर हो गया था, ट्यूशन पढ़ा कर...। खाली वक़्त में किताबें पढ़ना जितना उसे पसन्द था, उतना ही अनजाने को भी...। हाँ, ये ज़रूर था कि आज अनजाना बिना किसी रुकावट के अपनी मंज़िल तक पहुँचा था, जबकि उसे अपने घर से इतनी दूर, एक छोटे शहर से निकल इस इंसानी जंगल में अकेले आकर रहने की इजाज़त पाने में बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। मम्मी तो तब भी राजी थी, पर डैडी...। उन्हें मनाना किसी एवरेस्ट को फ़तह करने से कम नहीं था। वे तो उसके नौकरी करने के पक्ष में ही नहीं थे...। ये तो मम्मी ही थी, जिन्होंने ढाल बन कर उनके हर गुस्से का वार अपने ऊपर झेला और उसे यहाँ तक आने में मदद की...। अब भले डैडी अपनी बेटी पर गर्व करते हों, पर वो भी क्या दौर था...तौबा...!

आज इतने महीनो में उन दोनों ने हर विषय पर खुल कर बात की है...| कई बार मतभेद होने पर झगड़े भी हैं...एक-आध दिन चैटिंग भी बंद रही, पर फिर मन भी तो नहीं लगा...| फिर से बाते...रूठना-मनाना...सब शुरू हो जाता| अनजाना पता नहीं कहाँ-कहाँ से ढूँढ कर उसे किताबे बताता और वो पहला मौका लगते ही उन्हें खरीद लेती...| फिर देर रात तक जाग कर उन्हें पढ़ती और दूसरे दिन उस पर जम कर चर्चा होती...| पर मजाल है, कभी इन चर्चाओं की आड़ में अनजाना ने उससे कोई छूट लेने की कोशिश की हो या कोई गन्दी बात कही हो...| उसकी इसी खासियत के कारण तो वो उसके लिए इतना स्पेशल-सा बन गया था...वरना न जाने कितने लड़कों ने उससे दोस्ती करनी चाही, पर जहाँ किसी के मुँह से गन्दगी झरी कि वो उसकी जिंदगी से आउट...|

उन दोनो की चर्चाओं में साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर भी खूब चर्चा होती थी...। कई बार उसने अनजाने के क्रान्तिकारी विचार सुन कर कहा भी...मतलब लिखा भी...तुम लीडर बन जाओ...खूब कमाओगे अपने इन लच्छेदार भाषणों के कारण...। ऐसे में वो बड़ा चिढ़ जाता...। बुरा-सा मुँह बनाता...। उसे बड़ी मज़ा आती थी...।

सहसा लैपटॉप पर फिर मैसेज आने की आवाज़ हुई तो जैसे वो अपने विचारों से बाहर आई...|

आर यू देयर...?

यप्प...।

क्या कर रही...?

कुछ सोच रही...।

क्या...?

प्रत्युत्तर में उसने एक जीभ चिढाता स्माईली बना कर भेज दिया...|

अब भी नहीं बताओगी...?

क्या...?

अपना नाम...?

इधर पता नहीं क्यों अनजाना अपना लोगों का वो अनकहा-अलिखित समझौता ध्वस्त करना चाह रहा था...कई बार उसका असली नाम पूछ कर...और पता नहीं क्यों, इतने दिनो तक अनजान-से रहने की आदत पड़ गई है उसे, सो वो बताना नहीं चाह रही...।

पहले तुम बताओ...।

जवाब में पहले तो अनजाना ने भी पहले उसे जीभ चिढ़ाई, फिर आँख मारी और तब कहीं जाकर कहा...अभी भी नहीं समझी...?

नहीं...।

अरे बुद्धु, मेरा नाम मेरी आइडी में ही छिपा है...डीप नहीं, दीप...दीपक नाम है मेरा...। अब तुम्हारी बारी...। तुम बताओ अपना नाम...।

नाम में क्या रखा है...?

बहुत कुछ...।

माने...?

बताऊँ तो बुरा तो नहीं मानोगी न...?

नहीं...।

पक्का...?

पक्का...।

मैं ये चाहता हूँ कि जिसे मैं प्यार करने लगा हूँ, जिसके साथ मैं अपनी आगे की ज़िन्दगी की कल्पना करने लगा हूँ, कम-से-कम उसका नाम तो मुझे मालूम हो...।

वो पल भर शान्त रही थी...। क्या करे...? कभी मामूली सी लगने वाली ये चैटिंग ऐसा मोड़ भी लेगी, उसे अन्दाज़ा ही नहीं था। पर इस मोड़ में उसे डरने वाली कोई चीज़ नहीं लग रही थी...। दीपक औरों से बहुत अलग था। उसे अपने बारे में इतना कुछ बता चुकी तो अब नाम बताने में क्या हर्ज है...?

उसने धीरे से, जैसे किसी नाजुक कली को सहला रही हो, यूं हौले से अपना नाम टाइप किया...आलिया...|

उधर भी कुछ पल सब शांत रहा...| उसे लगा, दीपक भी उसके नाम कि खुशबू जज्ब कर रहा होगा...|

आलिया...आगे...?

आलिया सिद्दीकी...|

इधर कई दिन बीत चुके है...| आलिया दिन में कई-कई बार अपना लैपटॉप चेक कर रही है...पर उसका चैट बॉक्स मानो किसी बात का मातम मना रहा है...इतना शांत...सदमाग्रस्त...।

इतनी पढ़ी-लिखी, इंडिपेंडेंट होने के बावजूद आलिया अभी भी समझ नहीं पा रही है...आखिर नाम में रखा क्या है...?

(प्रियंका गुप्ता)