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नर्मदे हर

नर्मदे हर

मनीष वैद्य

नदी के शांत और निर्द्वंद बहते पानी पर से अभी – अभी सिंदूरी रंग उतरा है और अब नदी के पानी में धूप की सुनहरी परतें झिलमिला रही हैं. चैत के महीने में धूप अभी से चटख हो रही है. वैसे यहाँ की सुबह अल भुनसारे ही शुरू हो जाती है. सुबह चार बजे जब बड़े मंदिर के पुजारी नर्मदा में डूबकी लगाकर नर्मदे हर....नर्मदे हर.....मंदिर की ओर बढ़ते हैं, तब तक यहाँ के बाकी लोग भी जाग चुके होते हैं. फिर तो डूबकियों का सिलसिला देर तक चलता रहता और नाव – डोंगे खेने वालों का भी. कई श्रद्धालु डूबकियां लगाकर लौट चुके तो कई अब भी स्नान कर रहे हैं. नर्मदा के बीच धार में नाभिकुंड से तीर्थ यात्रियों को दर्शन करवाकर तीसरी मोटर बोट भी लौट रही है. मल्लाहों के बच्चे और औरतें बांस में जालियां लपेटकर नदी से तीर्थ यात्रियों के फैंके गए सिक्के और नारियल निकलने की होड़ में हैं. फूल - प्रसादी की दुकानों पर ग्राहकों और दुकानदारों के बीच मोल – भाव चल रहा है. परिक्र्मावासिनियाँ हाथ में नर्मदा का फोटो लिए तीर्थ यात्रियों से दान – धर्म की गुहार कर रही है.

....अरे, आज फिर एक बच्ची मिली है.....यह शिवा केवट का हलकारा है, जो उधर बड़े पुल के नीचे से आ रहा है. शिवा केवट के इस हलकारे ने उस रोज रफ़्तार जिन्दगी को जैसे थाम दिया है. उधर पूरब की तरफ मंदिर की ओर जा रहे लोग रुक गए हैं. उधर दक्षिण में बहती नदी के नाव और डोंगे खेने वालों ने उन्हें किनारे लगाकर हलकारे की दिशा में दौड़ लगा दी है. कुछ तीर्थ यात्री और कुछ रोज नहाने आने वाले भी दौड़ पड़े हैं. पुजारी - पण्डे भी अपनी धोतियाँ सँभालते हांफते हुए भाग रहे हैं. नदी से चढावा उलीच रहे छोटे – छोटे बच्चों के हाथ भी अनायास रूक गए. वे भी अपना जाल फैंककर उस तरफ भागे जा रहे हैं. मंदिर की सीढ़ियों से सटी फूल – प्रसादी की दुकान वाले भी एक - दूसरे को सुपुर्द लगाकर बड़े पुल के नीचे की ओर बढ़ गए हैं. थोड़ी ही देर में यहाँ अच्छा – खासा मजमा जुट गया. सत्ताईस साल की नरबदी भी अपनी फूल - प्रसादी की दुकान पर बेटी को छोड़कर भीड़ के बीच आ खड़ी हुई है.

शिवा केवट के हाथों में एक बच्ची है करीब दो – तीन महीने की. वह लगातार बिलख – बिलख कर रो रही है. लाल चुनरी ओढ़े इस बच्ची के कपाल पर लगा कुंकू – हल्दी अब पसीने और आंसुओं से भींगकर पूरे चेहरे पर फ़ैल गए हैं. बच्ची रोते – रोते हर किसी की ओर टुकुर – टुकुर ताक रही है, शायद अपनी माँ को ढूंढ रही है. भीड में जितने मुंह उतनी बात. कोई उस अभागी की किस्मत को कोस रहा है तो कोई उसे चुप करने की कोशिश करा रहा है.

यहाँ नदी के इस घाट पर पर्व स्नानों पर लाखों लोगो की भीड़ होती है. पर आम दिनों में सामान्य भीड़ ही होती है. पूरब की ओर घाट से करीब सौ फीट ऊँचाई पर बहुत पुराना बड़ा सा मंदिर है. मंदिर और घाट के बीच कई सीढियां हैं और इन्ही सीढ़ियों पर फूल – प्रसादी बेचने वालों की करीब दो दर्जन से ज्यादा दुकाने हैं, सामने करीब आधा किलोमीटर चौड़े पाट में नर्मदा बहती है और इधर पश्चिम की ओर इलाके को इंदौर शहर से जोड़ने वाला चार फर्लांग लम्बा पुल है. इसे यहाँ के लोग बड़ा पुल कहते हैं.

नरबदी की आँखे अंगारे की तरह लाल हो रही है. अंदर कुछ उबल सा रहा है. साँसे धोंकनी की तरह, मुट्ठियाँ भींचने लगी. ऊपर से चुप नजर आ रही नरबदी के अंदर कुछ भी सहज नहीं है. ऊपर से शांत नजर आ रही नदी में भीतर की लहरों के कोलाहल की तरह. उसके मन में उथल – पुथल मची है. माथा तप रहा है. पैर कंपकंपाने लगे हैं. गला सूखने लगा है.

जब भी कोई बच्ची यहाँ इस हालात में मिलती है, तब नरबदी सहज नहीं रह पाती. वह गुस्से से उबलने लगती है. कई – कई दिनों बाद तक सहज नहीं हो पाती वह. ऐसी बच्चियों को लेकर वह परेशान हो उठती. देर तक वह उस बच्ची के ही बारे में सोचती रहती. वह उन हैवानों को कोसती रहती, जिन्होंने उसे इस हालत में पंहुचा दिया. क्या सच में कोई इतना निर्दय हो सकता है. कैसा पत्थर कलेजा रहता होगा उन लोगों का. यहाँ तो ये सब होता ही रहता है. दो – चार महीने हुए नहीं कि फिर कोई बच्ची मिल जाती है इसी तरह लाल चुनरी ओढ़े. कपाल पर हल्दी – कुंकू. कभी यहाँ से तो कभी वहां से. नदी के किनारे कहीं से भी.

अब बच्ची को शिवा केवट से भीमा की पत्नी ने अपनी गोद में ले लिया है. उसने अपनी गोद में बच्ची को भींच लिया है और उसे थपकियाँ देकर चुप कराने की कोशिश कर रही है. पर वह चुप नहीं हो पा रही. वह अब भी बिलख – बिलख कर रोती ही जा रही है. लगातार रोने से उसकी सिसकियाँ आ रही है. भीमा की पत्नी उसे चुप कराने की हर संभव कोशिश कर रही है लेकिन बच्ची पर इसका कोई असर नहीं हो रहा. वह रोए जा रही है. बिलख – बिलखकर.

नरबदी वहीँ बालू पर पसर गई. उसकी नजरें नदी के बहते हुए पानी पर है. मन में उथल – पुथल मची है. वह सोचती है – उसके अंदर कोहराम मचा है लेकिन नदी तो उसी तरह बह रही है.शांत और निर्द्वंद. जैसे पहले बह रही थी, जैसे इस बीच कुछ हुआ ही नहीं. नदी इतनी कठोर, तटस्थ और निर्लिप्त कैसे रह सकती है. क्या उसे बच्ची का रोना सुनाई नहीं देता. नर्मदा को तो इलाके के लोग माँ की तरह मानते हैं. यह कैसी माँ है और कैसी इसकी ममता. उसकी नजरें नदी के बहते हुए पानी पर है. जैसे नजरें थम गई हों. वह सोचती है, नदी की नियति भी कैसी होती है. सब कुछ जानते हुए भी शांत रह जाने की, निर्द्वंद रह जाने की. ऊपर से शांत और अंदर से कई धाराओं को समेटे हुए, नदी की गहराइयों में कितने रहस्य छुपे होंगे. कितने राज दबे होंगे, और कितनी पीडाएं भी. नदी कितने लोगों के दुःख - तकलीफें हरती हैं. कितने लोगों को उम्मीद से बांधती है नदी. सैकड़ों बरसों से इसी तरह बहती रही है नदी. ऊपर से शांत लेकिन अंदर दुःख समेटे हुए, भिन्न – भिन्न धाराओं को एकरूप करती नदी. कभी तोडना पडती है नदी को भी अपनी हदें. तब वह शांत नहीं रह पाती, वह अपने रौद्र रूप में आ जाती है और तोड़ देती है तमाम हदें, अपने तटबंध भी. तब नदी के आंचल में हमेशा रहने वाले लोग भी यहाँ नहीं ठहर पाते नदी का गुस्सा जब शांत होता हैं तो बची रह जाती है तबाही की निशानियाँ

नदी कैसे रह लेती है इस तरह निर्द्वंद...क्या नदी का जीवन ही ऐसा है. शायद यही नियति है उसकी. कहीं थमना नहीं, कहीं रूकना नहीं, न किसी से मोह – माया, न कहीं कोई बंधन,,,,,नदी कभी कहीं रूक जाने की लालसा नहीं करती. पत्थरों, चट्टानों और पहाड़ों को लांघती, फलांगती और रौंदती हुई वह बहती रहती है अनवरत. जिन्दगी भी कहाँ रूकती है. तमाम परेशानियों, त्रासदियों और यातनाओं के बाद भी वह चलती ही रहती है. मोह – माया से परे जाकर भी जिन्दगी कहाँ थम पाती है. ये परिक्र्मावासिनियाँ ...कभी घर – परिवार की दहलीज में सिमटी रही, घर – बार छोड़ा और नदी के किनारे को ही घर – आँगन बना लिया पर अपने को बाहर कहाँ निकाल पाई. अब भी वही मोह – माया, वही मेरा की लालसा. कभी – कभी तो एक – एक रूपए की भीख के लिए एक – दूसरे से भिड जाती हैं वे. किसने क्या छोड़ा ...? किसने किसको छोड़ा ....? और कौन किसको छोड़ सकता है ......? किसी के छोड़ देने भर से क्या कोई छूट सकता है. यही तो जिन्दगी का क्रम है. नदी और जिन्दगी की नियति एक सी होती है.

उसने यहीं नर्मदा के तट पर देखा है सबको एक घाट पर. साधु – सन्यासी, पण्डे – पुजारी, परिक्रमावासी औरतें और आदमी, तीर्थयात्री, मरने के लिए नदी किनारे छोड़े जा चुके बूढ़े, मल्लाहों और डोंगे खेने वालों के बच्चे. कौन मोह – माया के परे जा सका है. शायद कोई नहीं. अपने ही परिजनों से ठुकराई ये विधवा परिक्रमावासी रात के अँधेरे में नदी के तट की बालू को अपने आंसुओं से भिगोती रहती है. शायद उन्ही के लिए जो इन्हें यहाँ छोड़ गए, अपने से दूर ....मर जाने को. वे पीछा छुड़ा गए इनसे पर ये अब भी नहीं भूली उन्हें. कैसे भूल सकती हैं...नदी की सी गहराई सबमें कहाँ होती. वे भी जो खुद भाग आई हैं जिन्दगी की तकलीफों से. क्या कोई अपने पिछले को सफ़ेद साडी या भगवा कपड़ों में छुपा सकता है.

अब तक गांववाले भी आ चुके हैं. सरपंच भी. पुलिस पंचनामा बना रही है. सरपंच नए – नए आए दरोगा को समझा रहे हैं - यहाँ की बहुत पुरानी बुराई है साहब. चार – छह बेटियों के बाद भी जब बेटा पैदा नहीं होता तो लोग यहाँ नर्मदा से मनौती करते हैं साहब. मनौती क्या बिजनेस डील की तरह .. माँ अबकी बार बेटा ही देना. यदि बेटी हुई तो यहीं तेरे किनारे पर छोड़ जाएँगे.... और साहब ऐसे लोग होते भी हैं, पत्थर कलेजे के. लाल चुनरी ओढाकर कुंकू - हल्दी में कर देते हैं बिदाई, कभी न वापस लौटने के लिए. उनके अपने ही उन्हें छोड़ जाते हैं इस तरह. मरने के लिए या शायद बच जाने की उम्मीद के भरोसे नदी की तपती बालू में.

साहब, जिन्दगी के रंग भी अजीब होते हैं. जिसकी तकदीर में जीने की रेखा हो वह ऐसे कैसे मर सकता है. कोई सहारा मिल जाता है और एक नई जिन्दगी शुरू हो जाती है. फिर से. यह अभागी अकेली नहीं है साहब, नदी के इस तट पर ऐसी दर्जनों हैं. कुछ को सहारा मिल जाता है तो उनकी जिन्दगी रफ़्तार पकड़ लेती है. उनकी एक माँ बिछुड़ती है तो उस दूसरी माँ का आंचल मिल जाता है. पर कुछ इनसे भी अभागी होती है. कुछ को कुत्ते नोंच लेते हैं तो कुछ इंसानी भेडियों या दलालों के हाथ.. कहते – कहते सरपंच का स्वर रुआसा हो गया था.

अब वह मासूम लगातार रोने से थक कर सो रही है भीमा की पत्नी की गोद में. उसके चेहरे पर अब राहत के भाव हैं. बीच – बीच में उसके चेहरे पर बाल - सुलभ मुस्कराहट आती है और चली जाती है. उस मासूम को नहीं पता कि उसके साथ कितना बड़ा छल किया है उसके ही अपनों ने. उसे किस गलती की सजा दी जा रही है. इसका जवाब किसी के पास नहीं. बच्ची नींद में हैं, पर भीमा की पत्नी फिर भी उसे प्यार से दुलराते हुए थपकी दे रही है. इतनी सी देर में भीमा की पत्नी को ममता पड़ गई है उससे. फिर उस माँ का कलेजा कैसा रहा होगा, जिसने उसे महीनों तक पेट में नाल से बांधकर रखा. अस्पताल की गाड़ी आ गई है. भीमा की पत्नी से नर्स ने बच्ची को ले लिया है.

बड़े मंदिर की घंटियाँ बज रही है. अलसुबह चार बजे से जागे भगवान अब छप्पन भोग का स्वाद लेकर सो जाएँगे. अब उन्हें कोई नहीं जगा सकता. बरसों से भगवान इसी तरह सोते रहे हैं. तयशुदा समय पर.

नरबदी अब भी वहीँ है. बालू पर बैठी नदी की धार को एकटक देखते हुए,मानों सवाल कर रही हो नदी से. नदी से या अपने आप से. बरसों से करती रही है वह ये ही सवाल पर जवाब कभी मिला ही नहीं. यहाँ नर्मदा का नाभिकुंड है. यह तीर्थ माना जाता है, दूर – दूर से लोग यहाँ आते हैं अपने पाप नदी में प्रवाहित कर पुण्यों की गठरी बांधने. लोग मानते हैं कि यहाँ मरने वाला मोक्ष पा जाता है, उसे फिर – फिर जन्म नहीं लेना पड़ता. यहाँ धरम – करम करने से लोगो की मनौतियाँ पूरी होती हैं. लोगों की नदी से आस्था जुडी है. इसे इस तरफ की गंगा मानते हैं वे. यहाँ का कंकर भी शंकर माना जाता है पर्व स्नानों पर यहाँ लाखों लोग जुटते हैं. लाखो लोग नर्मदे हर... के उदघोष के साथ डूबकियां लगाते हैं ताकि उनका वंश चलता रहे, उनका कारोबार चलता रहे, लक्ष्मी की कृपा बनी रहे.

सत्ताईस साल पहले नरबदी भी इसी नदी की तपती बालू में लाल चुनरी में लिपटी कुंकू- हल्दी लगाकर छोड़ दी गई थी. जब माँ की थपकियों से सोकर दो महीने की नन्ही जान ने आँखे खोली तो माँ के आँचल की जगह नदी का आँचल था. नीचे धूप में तपती बालू और ऊपर आसमान. फूल – प्रसाद की दुकान लगाने वाली दुलारी बाई की ममता जागी तो माँ का आँचल मिल गया. जन्म देने वाली ने छोड़ा तो पालने वाली माँ मिल गई. अपने बेटों की तरह पाला उसे भी. कोई फर्क नहीं. उसकी शादी भी कीऔर अब आठ साल की बेटी है उसकी. नर्मदा से मिली तो नाम पड़ गया नरबदी. दुलारी बाई नरबदी के माँ – बाप को हमेशा कोसती रहती. कैसे लोग रहे होंगे, न जाने किस मिट्टी के, जल्लाद और कसाई के भी हाथ कांप जाते हैं फिर वे तो उसके अपने ही थे. कैसे घर लौटे होंगे खाली हाथ......क्या नियति है औरतजात की भी.

नरबदी लगातार सोच रही है. लोग बताते हैं नर्मदा चिरयौवना है. उसे कोई मोहपाश में नहीं बाँध पाया. इधर के लोग नदी को कुमारी ही मानते हैं. बाकी सभी नदियाँ सुहागिने पर नर्मदा कुमारी... बताते हैं कि बाकी नदियों का सत खत्म हो जाता है, तब भी, नर्मदा का सत कलयुग में भी उतना ही है. बाकी नदियाँ जब मैली होते – होते सूखने लगी हैं, तब भी नर्मदा उसी तरह बह रही है.

पर्व - त्यौहारों पर हजारों माँए अपने बेटों की सलामती के लिए जलेबी भोग लगाती हैं. जितने बेटे उतने पाव जलेबी. नदी को भोग. बेटे कितने सलामत रह पाते हैं, पता नहीं पर हर साल सैकड़ों क्विंटल जलेबी जरूर बिक जाती है.

नरबदी की आँखों में वह दृश्य बार – बार कौंध जाता है. भूतड़ी अमावस की काली रात. सांझ ढलते ही नर्मदा के तट पर शुरू होता है भूतों का मेला. ओझा – पडियारों से जंजीरों से पिटती औरतें, भूत भागने के नाम पर. बालों की चोटी पकड़कर घसीटी जाती औरतें. बीस – बीस कोस दूर से आते हैं यहाँ लोग. मानसिक तौर पर बीमार औरतों के इलाज का यह कौन सा तरीका है. ओझा – पडियार बुरी तरह मारते रहते हैं और इन औरतों के परिजन ओझा की जय – जयकार करते रहते हैं. घिघियाती – चीखती औरतें. रात के सन्नाटे में औरतो की चीखें गूंजती रहती है और ओझाओं के कहकहे....अट्टहास. कहीं तलवार की धार से खून निकल रहा है तो कहीं जीभ में चाकू. वीभत्स से भी वीभत्स.

काली रात गुजरते ही सुबह की उजास के साथ बीती रात का कोई निशान बाकी नहीं बचता, कोई मलाल नहीं. लोग उसी तरह डूबकियां लगते रहते हैं, जैसे बीती रात कुछ नहीं हुआ. जिन्दगी उसी तरह शुरू हो जाती है अपनी ही रौ में. बीती रात की बातों को भूलकर औरतें फिर जुट जाती हैं घर – घरस्ती में.

यहाँ से लोग पुण्य की गठरियाँ बांधते है, बेटों की सलामती मांगते हैं. मनौतियाँ मांगते हैं. फिर यहाँ जो पाप करते है उसका .... छोटे मंदिर के पुजारी कहते हैं –

अन्यक्षेत्रे कृतं पापम, तीर्थक्षेत्रे विनश्यति |

तीर्थक्षेत्रे कृतं पापम, कदापि न विनश्यति ||

अन्य क्षेत्र में किया पाप तो यहाँ नर्मदा में बहा दोगे पर यहाँ किया हुआ पाप... नरबदी को लगा यह सब कहने की बातें हैं. अब तो नर्मदा में भी सत नहीं बचा. ऐसे लोगों की सजा क्या हो...इन्हें तो तडपा – तडपा के मारना होगा. उसके माँ – बाप को भी. उन्हें तो जितनी धीमी मौत की सजा हो सकती है, वह देना चाहिए. मौत से भी कोई बड़ी सजा हो तो वही सजा. शायद सबसे बड़ी सजा.. जैसी अब तक किसी को न मिली हो. बीते सत्ताईस सालों में वह अपने माँ – बाप की सजा तय नहीं कर पाई.. उनके जुर्म के लिए तो हर सजा छोटी ही लगती है.

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