Phir bhi Shesh - 20 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 20

फिर भी शेष - 20

फिर भी शेष

राज कमल

(20)

काजल अपनी दुनिया में तल्लीन थी। अब उसके बच्चे बड़े हो गए थे। दोनों लड़कियां डिग्री कॉलेज में और लड़का इंटर कॉलेज में पहुंच गए थे। वह अलग—अलग अनुभवों से सामना कर रही थी। पति की नौकरी का ट्रांसफर वाला कालखंड समाप्त हो गया था, और वे लोग झांसी में स्थाई तौर पर व्यवस्थित हो गए थे। एक धुरी पर परिवार और उनका यथाक्रम जीवन घूम रहा था, पर कभी—कभी घूमते—घूमते वे ग्रहों की तरह एक—दूसरे के पास आते ही हैं। परस्पर वृत्तों से टकराते हैं या उन्हें छू जाते हैं।

एक लंबे अंतराल के बाद हिमानी ने ही यह क्रम तोड़ा था पत्र लिखकर, जो महीनों इधर—उधर भटकने के बाद काजल को मिला था, जिसे देखते ही वह मिलने दौड़ी चली आई थी यानी मिलन की व्यग्रता उधर भी थी। लौटकर काजल ने उस रिश्ते और चाह को निभाने की पूरी ईमानदारी से कोशिश की। हिमानी को पत्र लिखा। मसला इतना नाजुक था, निर्णय लेना इतना कठिन था, फिर भी उसने लिया और वचन दिया कि ‘कहां और कैसे, यह मैं तय करके बताऊंगी,' किंतु क्या बता सकी अभी तक। कई बरस बीत गए। बीतते ही जाते शायद। हिमानी ने ही उस अंतराल को छोटा न कर दिया होता, बहुत दुविधा के बाद। दुविधा यही थी कि यदि वह सामान्य कुशलक्षेम के लिए भी उसे लिखेगी या फोन करेगी तो काजल को यही लगेगा कि वह ‘कहां और कैसे' जानने के लिए ही उतावली है। शायद इसीलिए उसने रितु के घर से भाग जाने वाला समाचार भी उसे नहीं दिया था और न नरेंद्र के बारे में कुछ बताया था। इसके अलावा भी बहुत कुछ था, जिसे उससे साझा कर सकती थी। एक हिचक थी, जो बैठ गई मन में और समय बीतता गया। वैसे हिमानी ने काजल का पत्र पढ़ लेने के बाद ही सोच लिया था कि उसे वचन से मुक्त कर देगी...उसकी अग्निपरीक्षा नहीं होने देगी। वह स्वयं को उसकी जगह रखकर सोचती तो सूखे पत्ते—सी कांप जाती है। ‘क्या वह दे पाती ऐसा वचन! या निभा पाती उसे? फिर वह काजल को क्यों विवश होते हुए देखे। नहीं!'

महादेव भवन में टेलीफोन बरसों से था महादेव सिंह के जमाने से, लेकिन उसका इस्तेमाल हरदयाल के घर और नीचे फैक्टरी में ही होता था। स्वयं महादेव सिंह भी वहीं बैठते थे। सुखदेव और उसके परिवार के लिए यह सुविधा गैर—जरूरी हो गई, क्योंकि एक टेलीफोन लाइन उनके पास भी थी, किंतु सुखदेव की काहिली के चलते, वक्त पर बिल जमा न होने के कारण अक्सर डेड रहती थी। जब तक महादेव सिंह जीवित रहे, उस लाइन को भी जीवित कराते रहे। उनके बाद उसे जिंदा रखना मुश्किल हो गया। इसलिए हिमानी ने उसे कटवाकर हमेशा के लिए छुट्‌टी पा ली। आपातकाल के लिए बगल में फोन थे ही। आदित्य के ऑफिस में भी फोन था, कंफेक्शनरी कार्नर में फोन था। बाहर मेन रोड पर पोस्ट ऑफिस भी नजदीक था, लेकिन बात चाह की थी। हिमानी को फोन पर बतियाने का न तो हुनर था, न ही शौक। बच्चों का काम ताऊ हरदयाल सिंह के घर जाकर चल जाता था। फिर भी, इस बार नरेंद्र ने एम.पी. कोटे से एक फोन घर में लगवा दिया था।

हिमानी का ट्रंककाल पाकर कुछ पल के लिए काजल विमूढ़ हो गई थी, अब क्या कहेगी? किंतु उसको कुछ कहने का मौका दिए बगैर हिमानी ने गत वर्षों की खास—खास घटनाओं को समाचार—वाचिका की तरह पढ़ दिया रितु फलां साल के फलां महीने में एक फोटोग्राफर लड़के के साथ घर छोड़ गई...साथ ही जाते समय पत्र में लिखा कि मुझे ढूंढ़ना मत...मैं बालिग हूं...अपनी मर्जी से जा रही हूं, लौटूंगी नहीं। सुना और देखा है आजकल विज्ञापन और वीडियो एलबम में काम कर रही है...टीवी में दिख जाती है। बहुत बदनामी झेली है उसके कारण। किसी की नजरों में वह कलाकार है तो किसी की नजरों में वेश्या, बेहया! नन्नू अब सयाना हो गया है। अपने मालिक सेठ एम.पी. के साथ है

... उसी ने चार दिन में फोन लगवा दिया। आया था घर, पैसे देकर गया। अब सेहत भी अच्छी हो गई है ...वैद्य जी इस दुनिया में नहीं रहे। तेरे जीजाजी वैसे ही हैं, न सावन हरे, न भादों सूखे। कोठी बेचने की तैयारी जोर—शोर से चल रही है। जब से रितु घर से भागी है और जो काम कर रही है, इस कारण से भी जेठ—जेठानी जल्द से जल्द हमारे नज़दीक से दूर हो जाना चाहते हैं। यहां रहते हुए उन्हें छोटे लड़के के रिश्ता तय होने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। ऐसा कहते हैं।'

काजल का अपराधबोध, उससे उपजी हिचक और सहज वार्तालाप का गतिरोध, जाने कहां विलुप्त हो गया। उसने उतने ही अधिकार और प्यारभाव से हिमानी को झिड़का कि इतना सब घट चुकने के बाद इत्तिला दे रही है... फिर उसने बताया कि मैं स्वयं उस मॉडल को देखकर अचंभित होती थी कि इसकी शक्ल अपनी रितु से कितनी मिलती है

...बच्चों को भी बताया...मुझे क्या मालूम था कि सचमुच वही है, कुछ तो उसके नाम से भी हम धोखा खा गए थे... पर एक बात है बहुत खराब लगता है, ऐसे एड और एलबम देखकर...बच्चों के साथ... सोच रही हूं उन्हें बताऊं भी या नहीं...खुश तो होंगे शायद, एक ही जेनरेशन है न...पर वे पढ़ाई में खूब सीरियस हैं...'

अब वह बहुत सहज थी। स्वर में रहस्य घोलकर उसने पूछा था, ‘वकील बाबू का हाल नहीं बताया, क्यों? अभी भी जीजाजी की गालियां खा रहा?' अब तो तू निपट अकेली

...बच्चों से मुक्त हो गई है। तो बता क्या नया...अब जीवन की कौन—सी दिशा होगी?'

‘दिशा तो तूने बता दी, अब क्या पूछती है?' सुनकर काजल अचानक हकला गई थी। जिस प्रश्न से बार—बार वर्षों से बच रही थी, हिमानी ने वही कह दिया। ‘दिखा दिया न अपना उतावलापन! कितना तो समझा रही हूं स्वयं को, पर कहां समझा पाती हूं...हार गई हूं मैं, फंस गई हूं मैं वादा करके...मैं इतनी महान नहीं हूं...नहीं बन सकती। मैं विवेक नहीं दे सकती। तुम्हें जिंदा रखने के लिए मैं नहीं मर सकती...यह आदर्श मुझसे नहीं निभने का। क्या करूं...तू खुद क्यों नहीं समझ लेती...तू भी तो औरत...' फोन पर एकाएक काजल की आवाज डूब गई थी। एकदम चुप्पी। जैसे उस छोर पर वह थी ही नहीं या न होना चाह रही थी। हिमानी को झटका—सा लगा। वह सचेत हुई, ‘हलो! हलो! काजल क्या हुआ रे!' हिमानी को आत्मबोध हुआ जैसे, ‘ओह! लगता है दूसरी दिशा में मुड़ गई काजल की पटरी, डेड एण्ड की ओर, जबकि वह तो उसी ‘डेड—एण्ड' से बचाने की कोशिश में थी, इतने उहापोह में टेलीफोन किया था। ओह! यही तो जड़ता है इस यांत्रिक जीवन की। पत्र लिखा होता तो पूरे विस्तार से। पूरे चिंतन—मनन के साथ, चाहे रातभर जागकर। कोई जल्दी नहीं, हड़बड़ी नहीं, निश्चिंतता से कहो मन की बातें! लिखते—लिखते खोलते चले जाओ, जब तक कि मन की परतें—परतें पूरी तरह न खुल जाएं।

‘यहां यह उलझाव कि पूरी बात सुनी भी नहीं, बात खुली भी नहीं, अन्यथा ले ली। अब बमक जाओ या माथा पीटो, रूठ जाओ। खट्‌ट से पटक दो चोंगा। यह भी कोई बात हुई भला!'

इतनी देर के बाद उधर से ‘हूं—हां!' हुई थी। जैसे तनिक होश में आई हो या जैसे कोई लस्टम—पस्टम, जबरन उठकर फ्रंट पर डट गया हो, मार नहीं सकूंगा तो हटूंगा भी नहीं यहां से, लो मारो, मैं तैयार हूं।'

हिमानी ने कह दिया था, ‘अच्छा, ठीक है। मैं तुम्हें खत लिखूंगी, समय की तार पर खिंचकर मुझसे न ज्यादा सोचा जाता है, न बोला जाता है। बच्चों को प्यार देना, अब रखती हूं।' और खट से रख दिया था रिसीवर।

उसी रात उसने काजल को पत्र में लिखा था।

प्यारी सखी! तुझसे बात किए बिना इतने दिन मैं कैसे रही; मैं ही जानती हूं।

बाधा थी लेकिन जानती थी, जब भी अपनी ओर से पहल करूंगी तो तुझे लगेगा कि तुझे तेरा वचन याद दिला रही हूं। तेरा फैसला तेरे गले की फांस बन गया था। इसलिए तू भी पहल नहीं कर पा रही थी, पर मेरी जान ऐसा बिलकुल नहीं है। तुम्हारा पत्र पढ़ लेने के बाद ही मैंने निश्चय कर लिया था कि तुम्हें धर्म संकट में नहीं डालूंगी। कुछ कमजोर क्षणों या अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर उस वक्त जो तुमसे मांगा, वह अब प्रासंगिक भी नहीं रहा...गुजरता समय और गहराता अनुभव, हमारे फैसलों पर प्रश्नचिह्न लगाता

है...उन्हें प्रभावित करता है। अब मैं वैसा कुछ नहीं सोचती, कुछ नहीं चाहती। तूने हां करके मेरा मान रख लिया। आइ लव यू। मैं तुझसे कुछ और साझा करना चाहती थी, किसी और दिशा की बात कर रही थी। जिस दिशा की ओर तूने ही इंगित किया था। मैं तो उससे अनजान थी या वीतरागी—सी कहां—कहां भटक रही थी। ‘कस्तूरी कुंडल

बसे...' की भांति वह महक मेरे इतना पास थी, फिर भी मैं अपने संस्कार और लोकाचार के भय से उसे आत्मसात नहीं कर पा रही थी। तेरे इशारे के बाद से ही जैसे कोहरा छंटता गया, धूप खिल गई। मैं अवश—सी उस उजास की चाह में आगे बढ़ती चली गई।

पर यार! यह बता, तूने कैसे उस आग को भांप लिया, जहां धुआं भी नहीं था। तूने कहा थाइज्जत और प्यार, क्या एक साथ नहीं हो सकते।' और यह भी कि हो सकता है, तुझे चाहता हो, तभी गालियां सुन लेता है।' लेकिन काजल अभी भी मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानती कि वह अकेला है, शादीशुदा है। या मेरे बारे में क्या सोचता है। बस, इतना ही जानती हूं कि वह एक अच्छा इंसान है, पेशे से वकील है। कुछ एनजीओ के साथ जुड़ा है तथा कुछ साल से हमारा किरायेदार है...बस! पर मुझे न जाने क्या हो गया है, इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद, ताने—गालियां सुनने के बाद भी मैं प्रसन्न दिखने लगी हूं। संगीत, मौसम, रंग, सब भाने लगे हैं। क्या कहती होक्या मैं उससे प्यार करने लगी हूं? नहीं! नहीं! अपने से करने लगी हूं...हा, हा, हा! ऐसा लगता है, जीवन में अभी बहुत कुछ शेष है और शायद मुझमें भी।'

इस पत्र के बाद काजल ने फोन पर हिमानी से कई मिनट तक माफी मांगी कि मैं ही तंगदिल थी और तुझे गलत समझ रही थी। तेरा बहुत बड़ा दिल है...ईश्वर तेरे दिल की खुशी सलामत रखे।' फिर भी हिमानी को काजल की फोनवार्ता बड़ी औपचारिक—सी लगी। पहले वाला अपनापन और उछाह नहीं था! काजल के जीवन का इतना महत्त्वपूर्ण प्रसंग भी उसे उत्साहित नहीं कर सका। जिस पर काजल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई थी। आखिर ऐसा क्या हो गया। कितना हुलस कर उसने अपनी अंतरंगता को खोला था उसके सामने। और किसे बताती, वही तो थी अब तक। हां! शायद अब तक, शायद आगे नहीं। वह पछता रही थी कि उसने क्यों लिखा, क्यों अपमानित हुई।

बदलाव तो आता ही है। देर—सवेर, सब कुछ बदलता है, किंतु सुंगधा यानी रितु के लिए यह सब बहुत जल्दी था। पिछले सात वर्षों से लगातार कोशिशों के बाद अभी तो उसने ठीक से उड़ना शुरू किया था। उसे ‘पीक' पर पहुंचना था, जो नहीं हो सका और तेज आंधियों ने उसे नीचे की ओर धकेलना शुरू कर दिया था। वह लड़खड़ाती नीचे की ओर जा रही थी।

गाड़ी से उतरते ही वह लड़खड़ाई, गिरने को थी कि उसके साथ ही उतरे अलंकार ने उसे थाम लिया। अंदर जाकर सुगंधा को उसने काउच पर छोड़ा और स्वयं शीशे की अलमारी से स्कॉच निकालकर गिलास में डालने लगा। रितु ने टोका, ‘‘पार्टी में अभी इतना पीकर आए हो...यहां फिर से शुरू...''

उसने आगे कहा, ‘‘दिस इस टू मच...चलो! अब घर जाओ...चलो...अब मुझे भी सोने का है।''

‘‘बस, थोड़ा सेलीब्रेशन तुम्हारे लिए!...आज तुमने हीरोइन का रोल साइन किया है, खजुराहो फिल्म कंपनी का...अब तुम स्टार हो...बहुत जुगाड़ वाला प्रॉड्‌यूसर है, किसी भी फिल्म फेस्टिवल में घुसा देगा अपनी फिल्म!...फिर देखना...बिंदास!''

‘‘क्या देखना रे! जंगल में मोर नाचा, किसने देखा।'' उसने मुंह बिचकाकर कहा। जितनी कंपनीज से तुमने मिलवाया, किसी की फिल्म ‘फ्लोर' पर गई क्या? नहीं! जो गई भी तो डिब्बे में बंद, रिलीज नहीं हुई। प्रोड्‌यूसर—डायरेक्टर आते हैं, रात को सोते हैं, दूसरी रात को कॉन्ट्रेक्ट साइन करते हैं, कोई—कोई मुहूर्त करके पार्टी भी दे देते हैं, बस! खेल खत्म...''

‘‘बेबी! बी फेयर...तुमको साइनिंग एमाउंट मिलता है न... फिल्म बने, न बने, नन आफ योर बिजनेस यार। फ्लैट, गाड़ी, खाना—पीना, पार्टीज, ड्रेसेज सब मैनेज हो रहा है न...'' यह सुनकर सुगंधा का पारा चढ़ गया।

‘‘मैं क्या ध्ांधा करने के लिए घर से भागी थी!''

‘‘ओ, अपुन को नई मालूम, सारी मैडम।'' मजाकिया अंदाज में ही कहा अलंकार ने, ‘‘एक बात और! इधर लाने के वास्ते आबिद भाई ने तुमको चीट नहीं किया होगा, सब कुछ क्लीयर किया होगा, एकदम। ही इज ए ओनेस्ट परसन, क्या आदमी हैबोले तो सोलिड—ट्रांसपेरेंट...सच्ची! आर—पार दिखता है...''

‘‘यही करना था तो किसी शहर की, किसी गली में कर लेती...।'' अब उसकी आवाज़ धीमी थी, सधी हुई, अपने को सुनाती हुई।

अलंकार ने उत्तर दिया, ‘‘बरोबर...मैडम! लेकिन इधर तुम आर्टिस्ट है...बोले तो कलाकार। जास्ती पैसा, जास्ती इज्जत—आबरू। वैसे भी हर डॉरेक्टर—प्रोड्‌यूसर तो चीप नहीं है ना।''

ठीक तो कह रहा था अलंकार, आबिद ने कुछ छुपाया नहीं, सब कुछ साफ—साफ बतायाकितने नदी—नालों से गुजरना पड़ेगा, कहां कीचड़ लगेगा और कहां किस ताल में सब घुल जाएगा। मेरी ही ख्वाहिशें थीं, मैंने ही रास्ता चुना, मैंने ही निर्णय लिया। अब किस को दोष दूं। यहां जीने के लिए जुगाड़ जरूरी है। यही अलंकार की भी मजबूरी है।

सुगंधा को जैसे गुस्सा चढ़ा था, वैसे ही उतर गया। अलंकार ने पास आकर गिलास आगे बढ़ा दिया।

‘‘एस! आई नीड इट! थैंक्य यू!'' कहकर उसने गिलास ले लिया और सोचते हुए सिप करने लगी।

अलंकार उसके पास ही सटकर बैठ गया। बायां हाथ उसके कंधे पर रख दिया।

‘‘यू आर नॉट ओनली वन...बेबी! इधर मोस्टली ऐसाइच...किस—किस का बताऊं

...कौन कैसे आगे बढ़ा...इधर मैं पंद्रह साल से...स्पाट बाय, असिस्टेंट डायरेक्टर, स्क्रिप्ट, जिंगल राइटर...पण अभी क्या? सुगंधा बेबी का मैनेजर...'' बोलते—बोलते वह रितु के बालों में उंगलियां फिराने लगा।

सुगंधा ने गिलास खाली करके, सिर अलंकार के कंधे पर रखा, थोड़ा निश्चेष्ट हो गई। आखिरी वाक्य पर उसने सिर तनिक उठाकर बनावटी गुस्से से अलंकार को घूरकर सिर्फ इतना कहा, ‘‘यू क्रैब!''

उत्तर में अलंकार ने वही पुरानी जिंगल दोहराई ‘‘आह! परी हो, मरमरी हो,

...हॉट एण्ड स्पाइसी, चिकन करी हो...।''

सुगंधा ने हंसकर उसे रोक दिया, ‘‘बस, बस!'' और उठकर अपने बेडरूम की ओर जाने लगी, ‘‘सिर दुख रहा है, अब सोऊंगी।''

‘‘ओ श्योर!'' कहता हुआ अलंकार भी उसके साथ बेडरूम में जाने लगा तो रितु ने रोका, ‘‘नो! आज नहीं...प्लीज!''

‘‘अपुन तो सिर दबाने आ रहा था...पैर भी दबा देगा।''

‘‘नो थैंक्यू!'' रितु ने अपनी मुस्कराहट छुपाकर कहा।

अलंकार ने अपने दोनों कंधे उचकाकर कहा, ‘‘एज यू विश बेबी! आई डोंट माइंड,

गुड नाइट!'' वह अपने जूते—टाई खोलकर वहीं काउच पर पसर गया।

आबिद ने सुगंधा को चीट नहीं किया, यह वह स्वयं भी स्वीकार करती है। उसके ‘सर्किल' के कई लोग भी गाहे—बगाहे उसकी इस क्वालिटी की तारीफ करते हैं।

‘जो कहता है, वही करता है...एकदम खरा। इस हाथ लो, इस हाथ दो।'

‘ही इज क्वीन मेकर...हीरा तराशता है, हीरा।'

सुगंधा ने जब पैर जमा लिये तो वह फिर निकल गया। अपनी नई खोज के लिए।

अब तो फिजां ही बदल गई है जमाने की। ग्लैमर की दुनिया में बाढ़—सी आ गई है। देश में सौंदर्य के नये प्रतिमान स्थापित हुए हैं और बाजार ने उन्हें हाथों—हाथ लिया है। आम लड़कियां सपने में कैटवाक करने लगी हैं।

कैसे एकाएक एशिया के इस उपमहाद्वीप में सौंदर्य का तूफान आ गया, यह बहुत से लोगों की समझ में नहीं आया। वे हमेशा इसे शक की नजर से देखते हैं और बहुदेशीय— कंपनियों की बाजारवादी रणनीति का ही हिस्सा मानते हैं। इस सब से, मॉडलिंग और फिल्मी क्षेत्र में बहुत आपाधापी बढ़ गई है। बहुतायत के कारण प्रतियोगिता बढ़ गई है। एक के ‘ना—नुकर' करने या अपनी शर्तों पर काम करने पर, काम हथियाने के लिए मॉडल्स की क्यू आ खड़ी होती है। दूसरी ओर इस चकाचाैंध से काम के अवसर भी बढ़े हैं, पैसा भी बढ़ा है, पर यकीनन जीवन की सुरक्षा घटी है, तनाव बढ़ा है।

जब पैसा आता है तो स्टेटस बनता है। समाज में स्वीकार्यता बढ़ जाती है, सम्मान मिलता है। सही—गलत के मायने बदल जाते हैं और सांस्कृतिक पुनरावर्तन होने लगता है। ‘कल्चर्ड' या सभ्य समाज ऐसे ही तो विस्तार पाता है।

अपने कैरियर को लेकर सुगंधा भी चिंतित है। अभी तो उसने कुछ उड़ानें ही भरी थीं। शिखर तो अभी दूर था। ऐसे में वह सौंदर्य का खिताब जीत कर आई नेत्रियों से बहुत नाराज है। कभी—कभी चिढ़कर कहती ये तो गिरगिट हैं, जीतने से पहले तो रैम्प पर किताबी आदर्शों का खूब ढोल पीटती हैं। जैसे दूसरी मदर टेरेसा यही बनेंगी, बस! टाइटल मिलते ही आ जाती हैं, हम जैसों की छाती पर मूंग दलने के लिए... बाण्ड का एक साल भी बड़ी मुश्किल से गुजार पाती हैं। हिपोक्रेट!' कुछ उस जैसी लड़कियां तो उसके विचारों का समर्थन करती थीं, पर पुरुष वर्ग हंसकर रह जाता था। पार्टी में थोड़ा ज्यादा पी लेने के बाद ही वह बहकती थी। ऐसे में अलंकार उसके कान में धीरे से फुसफुसाता, ‘‘ये भाषण इधर नहीं! अपने बैडरूम में देने का, कितनीच बारी मैं समझाया कि पार्टी में जास्ती नहीं लेने का...।''

इन पार्टियों में अब आबिद दिखाई नहीं देता, सुगंधा जानती है कि उसके साथ कोई कमिटमेंट नहीं था। फिर भी कमबख्त याद आता है। उन दिनों कैरन के साथ दिखता था। उसने साफ—साफ बताया भी था। फिर एकाएक न जाने कहां गायब हो गया। उसके दोस्तों को भी कुछ पता नहीं चला कि इस बार उसने किधर का रुख किया है। सुगंधा ने अलंकार के मार्फत उसको बहुत ढुंढ़वाया, पर मिला नहीं। एक—दो विज्ञापनों के बाद कैरन भी दिखाई नहीं दी।

जब आबिद सुगंधा को धीरे—धीरे छोड़ रहा था और कैरन से जुड़ रहा था तो बड़े फ्लैट की उस पार्टी के बाद एक दिन उसकी शूटिंग लोकेशन पर मिला था। पैकअप के बाद सुगंधा बड़ी मुश्किल से उसे घर ले आई थी, देर रात तक वह रुका भी था। सुगंधा चाहती थी कि वह वहीं रुक जाए, कभी न जाने के लिए। उसने ‘न जाओ सैयां छुड़ा के बैयां' वाले अंदाज में मनुहार भी की और न चाहते हुए भी मनाली के हिडिंबा मंदिर में हुई शादी का हवाला भी दिया। कहा भी कि तुम मानो न मानो, हम ईश्वर के सामने पति—पत्नी ही हैं।'

सुनकर हंसा था आबिद।

‘हां डार्लिंग! तुम हिडिंबा और मैं भीम, पर वे दोबारा कभी साथ रहे भी थे इसमें मुझे शक है।'

‘‘रास्कल! तो तुमने जानबूझकर वह मंदिर चुना था।'' हताश—सी होकर बोली थी सुगंधा।

‘‘नहीं, नहीं!'' कहकर वह हंसता रहा था थोड़ी देर, फिर कहा था, ‘‘दैट वाज जस्ट को—इंसीडेंट... नजदीक था और भीड़—भाड़ भी कम थी वहां।''

‘‘ओ.के. फाइन! तुम भीम बन जाओ, मत मिलना कभी...लेकिन...''

‘‘लेकिन क्या?''

‘‘घटोत्कच के होने की उम्मीद मुझे हो जाए तो चले जाना।'' कहकर वह आंखों में मुस्कराई थी और आबिद जोर से हंसा था।

‘‘सावित्री की तरह यमराज को फंसाना चाहती हो, तथास्तु! कहने के लिए।'' कहते हुए वह गंभीर हो गया, ‘‘नहीं! आगे और पांच—सात वर्ष तक तो हर्गिज नहीं! मैं तुम्हारे कैरियर का दुश्मन नहीं बन सकता। अभी बैंक—बैलेंस बनाओ, उसके बाद शादी बनाओ, सैटल हो जाओ, पर मैं तो कहूंगा, ऐसे ही रहो बिंदास! लिव इन रिलेशन—

शिप का जमाना है मेरी जान! जब तक चाहो, जिसके साथ जमे रहो, फिर वो नहीं, कोई और सही, और नहीं, कोई और सही। नो किट—किट! नो लायबिलिटी। अपुन का लाइफ, अपुन मालिक! फिनिश! एण्ड रिमेम्बर दैट! तुम भी यही चाहती थीं।'' जानती है कि वह यही चाहती थी, पर कैसा जीवन का खेला है कि जिसे नकार कर आप आगे बढ़ते हैं और एक दिन वही आपको लुभाता है, आप उसी की उम्मीद करते हैं।

सुगंधा का दिल है कि मानता ही नहीं। समय तो गतिमान है गुजर रहा है, मगर भविष्य में उसकी गुजर कैसे होगी। अभी से असुरक्षा की भावना उसे चैन नहीं लेने देती। इसलिए पीना शुरू हो गया है कि भुलाए रखो मुश्किलों को। वीडियो एलबम की कामयाबी के बाद भी कोई बड़ा धमाका नहीं हुआ। एक फिल्म भी की, उसका डायरेक्टर नया था और थोड़ा ज्यादा ही प्रयोगवादी और फिल्म बुरी तरह फ्लाप हो गई। उसके बाद सी—ग्रेड की दो फिल्मों में काम किया तो सी—ग्रेड एक्ट्रैस का ठप्पा चस्पां हो गया।

कोरियोग्राफर बावला के पास अब डांस—कोर्स करके लड़कियां आ रही हैं, उन पर मेहनत कम करनी पड़ती है। और वैसे भी अब फिल्मों में हीरो की भांति हीरोइन भी डांस, वैम्प, कॉमेडी जैसे चरित्र स्वयं करने लगी हैं। ग्रुप डांसर बनना सुगंधा के लिए छोटा काम है। इसलिए वह चाह कर भी उसकी मदद नहीं कर पाता। शोभित मुखर्जी के पास भी काम है, किंतु सुगंधा के लिए छोटे—छोटे रोल देने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाता। अलंकार अभी उसके साथ पहले की तरह है; पहले से भी ज्यादा। ऐसा इसलिए कि इतने साल बाद भी उसका अपना कोई स्टेटस नहीं बना। परजीवी बेल की तरह किसी न किसी पेड़ के तने से चिपका रहता है। अब वह तना सुगंधा है। सुना हैजिस दोस्त के साथ फ्लैट पार्टनर था, अब उसकी हैसियत पूरा भाड़ा देने की हो गई है तथा उसने शादी भी कर ली है। अलंकार को व्हिस्की और सिर छुपाने की जगह मिल जाती है, रोज चला आता है। सुगंधा उसे पुराना और वफादार समझकर झिड़कती नहीं है। कभी सोचकर हंसी भी आती है सुगंधा को। कितना दूरदर्शी है अलंकार। पहली ही मुलाकात में उसने अपने अंदाज में उसकी प्रशंसा की अनौपचारिकता दिखाई, जिसकी सुगंधा को उस वक्त जरूरत भी थी, इसीलिए शायद वह उसका विश्वास—पात्र बन गया था।

उस भरोसे को जमाए रखने और सुगंधा के अहसानों का बोझ कम करने की खातिर अलंकार, अपनी पहुंच के हिसाब से सुगंधा के लिए ऐड एजेंसी और फिल्म कंपनीज में काम दिलवाने की कोशिश करता रहता है। सुगंधा का अपने साथ की लड़कियों,

जिनसे शुरू में परिचय हुआ, सिर्फ परिचय तक ही सीमित था। वे पार्टियों में दिखती जरूर थीं, उसी अदा, शोखी और प्यार के साथ, किंतु सब दिखावा, ऊपरी ढोंग। अंदर से सभी एक—दूसरे की पीठ पर छुरा घोंपने को तैयार। एक ही पेशे के कारण गला काट— प्रतियोगिता, लेकिन टीना मिस्त्री ऐसी नहीं थी। उसी के साथ उसकी शुरू से ही पटती थी। शैलजा का प्रोफेशन अलग था, इसलिए उसके साथ भी अच्छी घनिष्ठता हो गई। उसने शादी कर ली थी एक आर्ट डायरेक्टर से। अब उसका बच्चा भी था। सो, जिम्मेदारियों के चलते उसका आना भी कम हो गया था। उसने तो बच्चे और घर के लिए अब काम करना भी बंद कर दिया था।

जिस दिन अलंकार साथ नहीं होता था तो सुगंधा टीना को ही फोन करती थी या गाड़ी उठाकर कभी—कभी उसके पास चली जाती थी। जब टीना भी कहीं व्यस्त होती, तब उसके पास नितांत अकेलापन होता था, जिससे वह इन दिनों बेहद डरने लगी थी। ऐसे एकांत क्षणों में पीछे छूटे हुए लोग एक—एक करके याद आते थे। हिमानी, सुखेदव, नन्नू, ताऊ—ताई... हिमानी मौसी के ट्रैजिक सीनबाप का शराब के नशे में पहले मौसी को फिर पूरे घर को गालियां देना। ताऊ—ताई के साथ तो ऐसे क्षण ही नहीं थे, जिन्हें वह याद कर पाती। मां का चेहरा बिलकुल नहीं दिखता। वह उसकी स्मृति में तो है, पर पहचान में नहीं है। दादा—दादी भी उसे अकसर याद आ जाते थे, बड़े बरगद की तरह पूरे परिवार को छांव देते हुए। स्कूल—कॉलेज की कुछ स्मृतियां उभरती हैं। सबसे ज्यादा कॉलेज के दोस्त प्राची, शगुन, कृतिका, नैना सिद्धू और लड़कों में रोहन, उन्मेष, सुमित बाली बहुत याद आते। प्राची के घर उसके ऑनर में हुई पार्टी और पार्टी में आबिद से पहली मुलाकात। सब कल की ही बात लगती है। कहां हैं वे क्षण, वे लोग, जिन्होंने उसकी खुशी को अपनी खुशी समझा था, उसे जिया था भरपूर। कहां होंगे वे सब? क्या अपनी—अपनी दुनिया में गुम हो गए, उसी की तरह। कहते हैं दुनिया बहुत छोटी है। बिछड़ों से भेंट हो जाने की संभावना बनी रहती है, किंतु अभी तक कोई नहीं मिला। वह किसी से नहीं जुड़ी, किसी से संपर्क नहीं किया, आगे—आगे बढ़ने की धुन में पिछला सब बिसरा दिया। ऐसा क्यों होता है जिन लोगों का विरोध करके जिन रिवाजों को ठुकराकर आप आगे बढ़ जाना चाहते हैं कुछ नया कर दिखाना चाहते हैं। कालांतर में वही आपको आकर्षित करते हैं... बुलाते हैं, वही सब आप पाना चाहते हैं। अब क्यों पीछे मुड़कर देखने का मन होता है। क्यों उसका भीड़ में रहने को जी चाहता है। एकांत और अंधेरे से डरने लगी है वह। क्यों अभी से दिन ढलने को हो आया है, पेड़ों के साये क्यों लंबे और डरावने होने लगे हैं। कोई है! कोई है, जो उसे इस सन्नाटे से बाहर खींचे, आबिद! आबिद! आबिद!' वह चीखकर आंखें खोलती है। दरवाजे पर अलंकार खड़ा मुस्करा रहा था।

‘‘कहां थे तुम तीन दिन से।'' वह हड़बड़ाकर उठी और उसे बाहों में भर लिया।

‘‘ओह! बेबी! तुम्हें तो फीवर है, तुम जरा यहां लेटो, मैं डॉक्टर को कॉल करता हूं।'' यह बात उसने बुदबुदाकर स्वयं से कही थी, क्योंकि सुगंधा तो बेसुध थी।

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Manish Saharan 3 years ago