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दरमियाना - 2

दरमियाना

भाग - २

रास्ते-भर वे चुहलबाजी करते रहे। एक-दूसरे को छेड़ते, गाते, टल्लियां-तालियां खड़खाते, वे मस्ती में चल रहे थे। उनके साथ का मर्दनुमा दरमियाना, ढोलक पर थाप देकर अलाप उठा रहा था। मैं भी साथ-साथ चलते हुए गर्व अनुभव कर रहा था कि जब बस्ती का कोई भी व्यक्ति उनके समीप नहीं आ पाता, तब मैं कितना सहज रूप से तारा का हाथ पकड़ कर चल सकता हूं। अन्य लोग, जो मुझे हास्य या घृणा की दृष्टि से देख रहे थे, उस समय ईष्यालु नज़र आये थे।

तारा ने फिर मेरे कंधे पर हाथ रखा और पूछ लिया, “क्यों रे लल्लू! तेरा नाम क्या है ?"

"मेरा?"

"हं!"

"आशु... मगर मां मुझे ‘अशुए‘ कह कर बुलाती है।"

"अच्छा! और मैं किस नाम से पुकारूं ? "तारा धीमे-से मुस्करायी और मैं थोड़ी देर तक यही सोचता रह गया कि इसकी मुस्कराहट कितनी अच्छी है!

फिर अचानक ही बोल उठा, 'नटराज'। कहकर, मैं कुछ पीछे हट गया और अपने नेकर को मैंने कस कर पकड़ लिया। मगर इस बार तारा मेरी ओर नहीं लपकी। वह खुलकर खिलखिला उठी थी। उसने दोनों हाथों से अपने सीने को पकड़ा और जैसे किसी दर्द से कराह उठी हो, "अय-हय ! मैं मर जाऊं--मेरे देवर जी!"

मेरे घर तक का रास्ता कुछ इसी तरह पूरा हो गया।

वे सब मेरे घर के दरवाजे पर अपनी 'दुकान' लगा चुके थे। मैंने अन्दर जाकर मां को यह सूचना दी थी, "बउआ ! ओ बउआ !! वो आये हैं।"

"कौन ?" मां की आंखों में, मेहमानों के आ जाने की-सी परेशानी थी।

"वो ही... तारा।"

"कौन तारा ?" माँ अभी तक नहीं समझी थी, इसलिए मैंने तारा और उसके साथियों की स्थिति अपनी हथेलियों से दर्शाकर माँ के कान में धीरे-से कुछ कह डाला। सुनते ही जैसे करंट लग गया हो। माँ सकपका उठी थी, "हे भगवान ! इन्हें भी जरूर आना था।" माँ के चेहरे पर कुछ अजीब-से भाव आये थे, जो मुझे अच्छे नहीं लगे। शायद इसलिए कि वे तारा के प्रति थे।

बाहर!

बे-सुर-ताल के गीतों पर, दरमियानों की थिरकन शुरु हो चुकी थी। उन सभी की हथेलियों के मध्य भाग बहुत जोर-जोर से टकरा रहे थे। रेशमा ने गीत का पहला मुखड़ा उठाया था, ‘झुमका गिरा रे, बरेली के बजार में।' अन्य सभी ने उसके झुमके के गिरने की गवाही दी।

थोड़ी देर बाद तारा ने पुकारा था, “अरी ओ, मुन्ना की अम्मा !... भलीमानस ! हमें बिटवा की शकल तो दिखा दे।" माँ छोटे को लेकर दरवाजे तक आयी थी। उसके हाथ में कुछ रुपये थे, जिन्हें उसने तारा की तरफ बढ़ा दिया था। मैंने ध्यान से देखा था, वे इक्यावन नहीं थे।... पहली घटना की स्मृति ने मुझे सिहरा दिया... किन्तु तारा ने माँ की हथेली पर से केवल एक रुपया उठाया, शेष दस रुपये हथेली पर ही रह गये। तभी रेशमा बोल उठी, "अरी ओ ! तेरा दिमाग..." तारा ने हाथ के इशारे से उसे बीच में ही रोक दिया। फिर उसने बनारसी पत्तों वाली पुटलिया निकाली और एक को, इक्यावन समझ कर भर लिया। छोटे की बलैयाँ लीं और कहने लगी, "सगन तो सगन होता है बहना! फिर एक क्या और इक्यावन क्या ?...जल्दी-से बड़ा आदमी बन जाये मेरा राजा बेटा... पढ़े-लिखे-कमाए, फिर चांद-सी दुल्हनिया लाये, मेरी बहना के लिए। "इसके बाद तारा ने माँ के कन्धे पर हाथ रखा और माँ को समझाने लगी, "बस री बहना ! अब और मत ना बनइओ, नहीं तो सुतरे पालने मुशकिल हो जाते हैं।" न जाने क्यों, माँ लजा गयी थी !

तारा के लौट जाने पर भी, माँ दूर तक उसको देख रही थी। मैं भी तब कुछ नहीं समझा था, मगर आज सोचता हूं तो सभी कुछ स्पष्ट होने लगता है।... लगता है--हमारे घर की टूटी हुई कुर्सी, फटी हुई चादर या माँ की पुरानी, मैली-सी घोती पर लगे पैबंद, तारा से नहीं छिप सके थे।

*****

सान्निध्य से परिचय प्रगाढ़ होता है और परिचय की प्रगाढ़ता से--प्रेम! किन्तु जिस तरह सानिध्य से प्रेम तक की प्रक्रिया को क्षणों में विभाजित नहीं किया जा सकता, ठीक उसी तरह, मेरे और तारा के अंतरंग हो जाने वाले क्षणों को भी रेखांकित करना कठिन है। मैं कब और क्यों उसके इतना समीप चला गया था, वह क्यों और कैसे मुझ तक सिमट आयी थी--नहीं कहा जा सकता!

अब तो केवल इतना ही याद है कि वह जब भी हमारी बस्ती में आती और मेरा कोई साथी-संगी उसे मिल जाता तो वह सबसे पहले मुझे ही पूछती। मेरे घर के सामने से निकलती या चमन चाय वाले के यहाँ अपने आने की सूचना छोड़ जाती। ...और जैसे ही मुझे उसके आने की सूचना मिलती, मैं ताश के पत्ते समेटता और साथी लोग को वहीं छोड़, चमन की दूकान पर पहुंच जाता। यदि वह वहाँ नहीं होती तो बीड़ी फूँकने जैसा कोई भी बेकार काम करते हुए, मैं उसका इन्तजार करने लगता... तारा आती और आते ही मुझे अपनी बांहों में भर लेती। पहले खुद बैठती और फिर मुझे अपनी गोद में बैठा लेती। मेरे बालों से खेलती, पीठ को सहलाती या बनारसी पत्तों की सुर्खी से मेरे दोनों गाल रंग देती... किन्तु मैं अब उतना छोटा नहीं था। पंद्रह-सोलह के आस-पास था। इसलिए महसूसने लगा था कि तारा का स्पर्ष, मुझमें एक अजीब-सी गुदगुदी भर जाता है। उसकी गोद में बैठा हुआ, मैं बहुत देर तक उसे देखता रहता था। उसका हल्का गेहुँआँ रंग, तीखी नाक पर नगदार फूल, आंखों में--अभिसारिकाओं की-सी खुमारी, काजल लगा लेने से और निखर उठती थी। उसके मेंहदी लगे हुए, सुनहरे से बाल थे। बनारसी पत्तों की सुर्खी लिए हुए, उसके रसदार होंठ, मुझे निमन्त्रण देते-से लगते थे। उसकी उम्र यही कोई चालीस के आस-पास थी। मेरी मां की आयु भी तब इससे कम नहीं रही होगी।

न जाने कैसे! एक दिन तारा को पता चल गया कि मेरी बैठ-उठ अच्छी नहीं है। मेरी सोहबत में जुआरी-शराबी बैठते हैं। उसने यह भी जान लिया था कि मेरा नाम स्कूल से काट दिया गया है। शायद मेरे ही किसी साथी ने उसको बतला दिया था कि मैं चोरी भी करने लगा हूँ। क्योंकि उस दिन जब मैं दौड़कर उसके पास पहुँचा तो वह अनमनी-सी बैठी हुई थी। मैंने इतना गम्भीर उसे कभी नहीं देखा था। आज पहली बार, उसके हाथों की हथेलियाँ भी चुप थीं। मैं भी जाकर चुपचाप बैठ गया। मुझे अभी तक उसके गम्भीर हो जाने का कारण मालूम नहीं था। मैं सोच ही रहा था कि तारा ने धीरे-धीरे कहना शुरू किया, "क्यों रे नट्टू !" उसने ‘नटराज‘ को संक्षिप्त कर दिया था, "मैं यह क्या सुन रही हूं ?"

"मुझे क्या पता, तूने क्या सुना है ?"

"हरामजादे !"तारा चीख उठी, "तूने मुझे भी अपनी माँ समझ लिया है क्या ? तू क्या समझता है, अगर उसे बेवकूफ बना लेता है, तो मूझे भी बना लेगा ?" मैने देखा जब माँ बिगड़ती है, वह भी ऐसी ही लगती है, तारा आगे कह रही थी, "तू ये क्या हरकतें करने लगा है? मेरा नहीं तो कम-से-कम अपनी माँ का ही ख्याल किया होता! एक वो है बेचारी, जो दूनिया-भर के कपड़े सीकर तुझे ठूंसाती है... और एक तू है!...इससे तो हम जैसे नपूते ही अच्छे! जा, हट जा यहां से..."तारा ने मुझे धकेल दिया था, "जरा-सी भी शरम बची हो तो अपना मुँह न दिखइओ।"

मैं हतप्रभ-सा उठा और उठकर चलने लगा तो उसने फिर पुकार लिया, "अशुए! बात सुन बेटा!"

उसके अब तक के व्यवहार की मुझ पर दोहरी प्रतिक्रिया हुई थी। मैंने पहले पक्ष में सोचा था-- ये साले होते ही ऐसे हैं और फिर यह कौन होती है, मुझे गाली देने वाली ? मैं इसके बाप का क्या बिगाड़ता हूं ? और दूसरे पक्ष में... मैं केवल चुप था। मेरी आंखों के दोनों कोर भर आये थे। तारा अब भी कह रही थी, "मान जा बेटा! ये सब अच्छे घर के लड़कों का काम नहीं है। तू उनका साथ छोड़ दे।... तुझे कोई परेशानी हो तो मुझसे कह। जितना पैसा-धेला चाहिए, मुझे बता। मैं क्या छाती पे धरके ले जाऊँगी, ये सब... "मेरे साथ-साथ तारा की आँखें भी भर आई थीं, मगर मैं चुप था और तारा कहती रही, "न जाने खुदा ने किस जनम का बैर ढाया है ! मेरे ही बीज पड़ सकता, तो अब तक मेरा जना भी तेरे ही जैसा होता, पर अपनी तो धरती ही... "इसके बाद वह कुछ नहीं कह सकी...कहती भी तो शायद मैं सुन नहीं पाता।

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